मंगलवार, 31 मार्च 2009

"अगले जनम में मोहे चूहा ही कीजो"

मंदी के इस जमाने में आदमी अपनी हर जरूरत को छोटा करता जा रहा है। जो लोग साल में चार बार छुट्टी मनाने जाते थे वे पिछले साल सिर्फ एक बार ही छुट्टी मना पाये। मैंने भी अतिरिक्त खर्चे, जैसे दोस्तों के साथ समोसे-मिठाई इत्यादि खाना बंद कर दिया है। सोचता हूँ कि इस बार घर ज्यादा पैसे भेज दूँ, ताकि मेरा परिवार तो ऐश कर सके। रोजाना दूध पीना बंद कर चुका हूँ, सिर्फ सप्ताहांत पर ही दूध पीता हूँ।

अरे लेकिन यह क्या हो रहा है? चूहे दूध से भरे थाल में मौज-मस्ती कर रहे हैं?


(विडियो शुरू करने के लिये विडियो के भीतर चटका लगायें)

मंदी की मार से चाहे इंसान की कमर दोहरी हो जाये, लेकिन फिर भी राजस्थान में करणीमाता के मंदिर के इन चूहों के ठाठ कम न होंगे।

उड़नतश्तरी जी से अग्रिम माफी माँगते हुये यही कहना चाहता हूँ:

"अगले जनम में मोहे चूहा ही कीजो"

"वो भी किसी मंदिर का चूहा"

4 टिप्‍पणियां:

Arvind Mishra ने कहा…

वैसे इस जन्म में आप क्या हैं ?

not needed ने कहा…

मंदिर बनाना गलत नहीं. लेकिन हिन्दू मन मंदिरों में दिए गए भेंटों का आधा हिस्सा भी यदि शिक्षा क्षेत्र, अस्पताल खोलने में लगा दे तो "ईसा शरणम् गच्छामि " का व्यापार भी कम हो जायेगा.

Anil Kumar ने कहा…

मिश्राजी आपने लाख टके का सवाल पूछ डाला! हँसते-हँसते अभी तक पेट दुख रहा है! :)

not needed ने कहा…

विडियो देखा. संगमरमर का पत्थर, छक्क के भोजन, चूहों के साथ साथ कीडे-मकोडे, गंदगी : कब हमारा हिन्दू मन बाहरी धार्मिक किर्या कलापों से हट कर धरम के मूल मन्त्र को पकडेगा ? इंसान भूखे , गरीबी, कुपोषण के शिकार बच्चे व् महिलाएं, बेसिक सिक्षा का भी आभाव, बल मजदूरी, और कितने ही समाज के सामने मुद्दे हैं?