रविवार, 4 मार्च 2018

निजी नौकरी में बढ़त पाने के दो तरीके

नौकरीपेशा लोग हमेशा अपनी तनख्वाह बढ़ने के इंतज़ार में रहते हैं. लेकिन आजकल सरकारी नौकरी जैसे जैसे विलुप्त हो रही है, निजी नौकरियों में तनख्वाह की बढ़ोतरी के तरीके को समझना ज़रूरी हो गया है. 

सरकारी नौकरी में जितने साल काम करोगे, उतनी तनख्वाह बढ़ेगी. अधिकांश सरकारी नौकरियों में कुछ साल काम करने पे तयशुदा बढ़त मिलती है. लेकिन निजी नौकरियों में ऐसा चलन कम ही देखने को मिलता है. 

दर्जनों लोगों से बात करने के बाद मुझे लगता है की निजी नौकरी में तनख्वाह की अधिकांश बढ़त पाने के दो ही तरीके हैं. 

एक तरीका है कि आप एक ही कंपनी में आजीवन काम करिये. ३०-४० साल काम करने के बाद आप उस नौकरी में बहुत लोगों से जान पहचान बना सकते हैं. और बहुत से लोगों का काम सीखकर अपनी कर्म-कौशल बढ़ा सकते हैं. फिर आखिरी में कंपनी अक्सर आपकी लम्बी नौकरी को ईनाम देगी. हालाँकि इसकी कोई गारंटी नहीं, लेकिन ऐसा अक्सर हो सकता है. इस तरीके का नुकसान ये है कि आपको कई साल दबकर रहना पड़ता है. और कई साल तक कम तनख्वाह पर काम करना पड़ता है. और अगर इस लम्बे समय में यदि आपपर कोई कीचड उछाल दे, तो आप गए काम से. 

दूसरा तरीका ये है कि  निजी नौकरी में आप हर तीन-चार साल में कंपनी बदलें. जब भी कंपनी बदलेंगे, तो आपको बढ़ी हुयी तनख्वाह मिलने के आसार अच्छे होते हैं. और १०-२० साल यह बदला-बदली करने के बाद अगर आपको कोई बहुत अच्छी कंपनी मिल जाये जहां लोग आपकी कदर करें और आपको समझें, तो वहीं आप बाकी ज़िन्दगी काम कर सकते हैं. 

मुझे दूसरा तरीका अच्छा लगा. इसमें जोखिम कम है, बढ़त जल्दी होती है, और आपके पास फिर भी बहुत समय होता है कि अपनी आखिरी कंपनी में कई दशक टिककर बड़ी तरक्की करने का भी मौका मिल सकता है. 

शुक्रवार, 12 जून 2015

नीति या नेता?



मेरे दो दोस्त हैं। दोनों बचपन से साथ एक साथ पढ़े हैं, एक साथ खेले हैं, और हमेशा दोस्ती निभाई है। लेकिन पिछले साल दोनों की बेमिसाल दोस्ती टूट गयी।

भला कैसे?

चुनाव का वक्त था। एक दोस्त नरेंद्र मोदी को पसंद करता था और एक अरविंद केजरीवाल को। दोनों को चुनावी बुखार चढ़ा और एक दूसरे से कतराने लगे। बात यहाँ तक बढ़ गई कि दोनों ने एक दूसरे से बात करना भी बंद कर दिया। जो दोस्त रोज एक साथ खाते पीते थे बैठे थे अब उन्हें एक दूसरे को देखना भी पसंद नहीं रहा।

जैसे-जैसे चुनाव का समय पास आता गया वैसे-वैसे इनकी दोस्ती पहले उदासीनता मेँ बदली और अंतत: दुश्मनी में। एक दिन तो चाय की दुकान पर इन दोनो का झगड़ा भी हुआ। गनीमत थी कि आसपास खड़े कुछ लोगों ने झगड़ा किसी तरह से छुड़वाया।

कृष्ण-सुदामा की ये जोड़ी राजनैतिक अंदभक्ति ने लील ली।

दोस्तों, राजनीति के बारे में सोचना और बहस करना अच्छी बात है। मैं तो कहता हूँ हर जागरूक नागरिक का फ़र्ज़ भी है। लेकिन जब आदमी नीति को छोड़ कर नैतिकों का साथ देने लगता है तब इस अंधभक्ति की शुरुआत होती है।

Discuss politics, not politicians.

भारत के सारे राजनेता एक जैसे ही हैं। ये सभी नेता लोग कैंटीन में एक ही साथ बैठकर खाते हैं। इनके भोज इत्यादि में सभी पार्टियों के नेता आमंत्रित होते हैं जहां ये सभी एक साथ ठहाके लगाते हैं और मिलकर दारू पीते हैं।

जब कभी आप पर मुसीबत आ पड़ेगी तो आपका पूज्य नेता आपकी मदद नहीं करने आएगा। उसे तो पता भी नहीं होगा कि आप कौन हैं। आपके दोस्त शायद तब भी किसी काम आ जाएँ। और कुछ नहीं तो कंधे पर हाथ राखकर आपका ढाढस ही बंधा दें।

गुज़ारिश है कि नेताओं के चक्कर में आकर अपने दोस्तों को न दुत्कारें। जिनसे राजनैतिक मुद्दों पर सहमति न भी हो, उनसे बाकी सब मुद्दों पर सहमति ढूँढने का प्रयास करें। इसी में चरित्र की परिपक्वता है।

इंसान की इंसानियत को समझना हर मानव का सर्वोपरि धर्म है।

शनिवार, 12 जनवरी 2013

"लड़की कैसी लगी"

यह बात पिछले साल की है, जब मेरे एक परिचित दोस्त की "ब्याह की उमर" हो चली थी, और उसके माता-पिता उसकी शादी के बारे में अत्यंत चिंतित थे. उसके माता-पिता ने कई स्रोतों के सहारे लड़कियाँ ढूंढनी शुरू कीं, और आखिरकार उनमें से एक लड़की का "प्रोफाइल" उन्हें पसंद आया. मेरे दोस्त के परिवार में एक परंपरा है कि लड़की देखने लड़का खुद नहीं जाता, उसके परिवार वाले ही जाते हैं. लड़के का खुद जाकर लड़की से मिलना अनुचित समझा जाता है.

तो खैर, लड़के को घर छोड, उसके घरवाले लड़की देखने गये, और देखकर वापस आ गये. मेरा दोस्त अपने घर पर सोफे पर बैठकर घडी देखते हुए उनका "टिक-टिक" इंतजार कर रहा था.

मेरे दोस्त ने अपनी माँ से पूछा "लड़की देख ली?"

माँ: "हाँ, देख ली"

दोस्त: "कैसी लगी?"

माँ: "ठीक लगी"

दोस्त: "ठीक से क्या मतलब? कुछ विस्तार से बतलाओ"

माँ: "लड़की के पापा क्लास वन अफसर हैं, लड़की की माँ हाउसवाइफ हैं, लड़की का भाई इंजीनियर है और बिजली कंपनी में काम करता है, लड़की की बहन बी ए कर रही है, लड़की के मामा टेलीफोन कंपनी में काम करते हैं, लड़की के चाचा हमारे जानकार हैं और हमारे पास-पडोस में ही कहीं रहते हैं"

दोस्त: "लड़की क्या करती है?"

माँ: "वो तो हमने पूछा नहीं"

दोस्त: "लड़की कहीं सिगरेट-शराब तो नहीं पीती?"

माँ: "कैसी बातें कर रहा है तू, लड़कियाँ भी कहीं ऐसे काम करती हैं?"

दोस्त: "मैं जब कालेज में था, कई लड़कियाँ थीं जो ऐसे काम करतीं थीं. इसलिये जानना चाहता था कहीं वो भी ... चलो छोडो. शादी के बाद लड़की नौकरी करना चाहती है या हाउसवाइफ बनना चाहती है?"

माँ: "तू इतने सवाल क्यों पूछ रहा है? जो हम करवाएंगे, वो ही करेगी"

लड़के की माँ ने लड़की के अलावा बाकी सब कुछ देख लिया - उसका घर, उसका परिवार, उसके मामा, चाचा इत्यादि. बस लड़की को ही देखना भूल गयी.

फिर माँ पूछती है "क्या सोच रहा है? कर दें तेरी शादी?"

दोस्त "कम से कम लड़की का नाम तो बता दे माँ, बाकी मैं खुद ही देख लूँगा"

माँ: "नाम बताया तो था उन्होंने, लेकिन मैं भूल गयी. शाम को फोन करके दोबारा पूछ लूँगी".

तो ये है हमारा शादी का सिस्टम.

अरे हाँ, लड़की कैसी लगी? जरा कमेंट करके बतलाइये!

बुधवार, 2 मई 2012

जिस महिला का पति उससे बात नहीं करता

पिछले हफ्ते एक महिला से बात हो रही थी, जिसे यह शिकायत थी कि उसके पति उससे बात नहीं करते. उसने उदाहरण दिया कि हाल ही में वे अपने बच्चों समेत कहीं घूमने गये थे. उनके पतिदेव ने दो घंटे तक गाडी चलाई, लेकिन उन दो घंटों में अपनी बीवी से एक शब्द तक नहीं बोला, और पूरी यात्रा "मूक" ही बीत गयी.

मैंने पूछा "क्या आपके पति हमेशा से ही ऐसे थे?". जवाब था, "नहीं, पहले तो ये बातें करते थे, मजाक भी करते थे. लेकिन जैसे-जैसे हमारी शादी को वक्त बीतता गया, वैसे-वैसे इनकी मुझसे बोलचाल बंद होती चली गयी". पेशे से डाक्टर होने के नाते मेरे पास ऐसे कई केस आते हैं जो मेरे लिये अति रोचक होते हैं, ये उनमें से एक था.

उसने बताया कि उसकी शादी हुए दस साल हो गये हैं, और पिछले २-३ सालों में उसके पति ने उससे बात करना बिलकुल बंद कर दिया है. पहले "हूँ-हाँ" कर देते थे, लेकिन आजकल वो भी बंद हो चुका है. अगले पंद्रह मिनट में मुझे यह पता लगाना था कि आखिर यह हुआ क्यों.

शुरुआत में जब एक आदमी और एक औरत करीब आते हैं, तो बहुत सी बातें होती हैं बतियाने के लिये. धीरे-धीरे जब वे एक दूसरे के आदी हो जाते हैं, तो कोई बात बुरी भी लगने लगती है. जब एक व्यक्ति कि कही गयी बात दूसरे को बुरी लगती है, और उसपर गुस्सा प्रकट किया जाता है, तो वह व्यक्ति ऐसी बात अगली बार नहीं कहता है. आखिर बातचीत में सामने वाले को गुस्सा दिलाने वाली बात किसे पसंद है.

तो भई धीरे-धीरे इस महिला ने अपने पति की कई बातों पर गुस्सा प्रकट किया, और मियाँ जी धीरे-धीरे कम बोलते गये, ताकि बीवी को गुस्सा न आये. और अब यही कारण है कि मियाँ जी की बोलती ही बंद हो चुकी है.

जब इस बात को मैंने उस महिला को एक शालीन तरीके से समझाया, तो वो रो पडी. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि जिसे वह इतनी बडी बात समझ रही थी, उसका कारण इतना छोटा-सा है.

तो मेरी सलाह यही रही कि उस महिला को अपने पति कि कोई बात यदि बुरी लगे, तो उसे साफ कहे कि वो बात उसे पसंद नहीं आयी. यदि कोई औरत लंबी साँस भरकर मुँह बनाती है, तो आदमी को कभी समझ में नहीं आता कि आखिर माजरा क्या है. इसलिये "कहना" बहुत जरूरी है. "ऐजी, आपकी कही यह बात मुझे अच्छी नहीं लगी" कहना सीखें. 

आपस में बात करना किसी भी रिश्ते के पनपने के लिये बहुत जरूरी है, चाहे वह बाप-बेटे का हो, या फिर मियाँ-बीवी का. कई बार हम अपने विचारों को अपनी शारीरिक भंगिमाओं से प्रकट करते हैं (जैसे कि गुस्सा आने पर मुँह बनाना इत्यादि), लेकिन जरूरी नहीं कि सामने वाला आपकी भंगिमाओं को सही-सही समझ पाये. इसलिये जीभ का इस्तेमाल करते हुए साफ-साफ कहें.

उस औरत का पिछले एक हफ्ते में बहुत भला हुआ है, आपका भी होगा.

सोमवार, 14 मार्च 2011

संचारजाल की माया

आज आपको एक कहानी सुनाता हूँ.

पिछले साल की बात है, दिल्ली शहर में एक लडका रहता था. आँखों पर काला चश्मा लगाना, "चिग्गम" चबाना, और महंगे-से-महंगे तकनीकी खिलौने खरीदना उसका शौक था. और जब इतने दिखावे करने की आदत हो तो लाजमी है कि कई "दोस्त" भी होने चाहिये जिन्हें ये खिलौने दिखाकर अपनी शान बढाई जाये. ये लडका सारा दिन अपने दोस्तों की महफिल में घिरा रहता, और शाम को घर पर आने के बाद उन्हीं दोस्तों से फोन पर गपशप करते-करते सो जाता.

फिर एक दिन लडके को नौकरी मिली. लेकिन दोस्तों की महफिल देर रात तक चलने के कारण वह कभी समय पर दफ्तर नहीं पहुच पाता था. नतीजतन एक दिन मालिक ने उसे काम से निकालने की धमकी दे डाली. लडके का दिल टूट गया, और वो घर आकर खूब रोया. उस दिन उसे पता चला कि वो संचार-माध्यमों के मायाजाल में किस कदर फँसा हुआ था. उसने एक-दो दिन फोन बंद करने की कोशिश की, लेकिन हर पाँच मिनट में वह फोन चैक करता, कि कहीं किसी का मिस-कौल या SMS न आया हो. उसे महसूस हुआ कि यह काम उससे अकेले न होगा.

लेकिन मदद माँगे भी तो किससे?

उस रात घर वापस लौटते हुए उसे एक महात्मा जी दिखायी दिये. उसने सोचा कि हो न हो, ये महात्मा जी उसकी मदद अवश्य करेंगे. लडके ने महात्मा जी को अपनी सारी दुविधा बतला दी. महात्मा जी ने कहा कि उसे छ: महीने के लिये घर-बार छोडकर हिमालय की किसी गुफा में जाकर रहना होगा, तभी इन फोन-इंटरनेट के चक्करों से छुटकारा मिल पायेगा. लडके ने महात्मा जी की कही बात मानी, और अगले दिन पौ फटते ही बस पकडकर हिमालय पहुँचा, जहाँ एक गुफा में वो छ: महीने रहा.

छ: महीने रहने के बाद वो वापस दिल्ली आया, और महात्मा जी को दरवाजे पर खडा पाया. लडके को महात्मा जी पर बहुत गुस्सा था, क्योंकि वो अभी भी फोन और इंटरनेट की लत छोड नहीं पाया था, और उसकी उंगलियाँ अभी भी फोन पर जैसे खुद-ब-खुद SMS करती चली जा रही थीं. लडके ने महात्मा जी को खूब गालियाँ दीं, और बैठकर रोने लगा.

महात्मा जी ने उसे रोता देखकर पूछा "बेटा, तूने हिमालय की गुफाओं में रहकर क्या किया?"
लडका बोला "वहाँ मैं अपना फोन और सौर ऊर्जा से चलने वाला एक चार्जर ले गया था. और छ: महीने घर से बाहर रहना था, इसलिये फोन में पचास हजार रुपये का रीचार्ज कूपन भी भरवा ले गया था, ताकि दोस्तों से बात होने में कोई दिक्कत न हो".

यह सुनकर महात्मा जी ने अपना सिर पीट लिया, और अंतर्ध्यान हो गये.

माया दुनिया में नहीं, अपने दिल में होती है. दिल पर काबू पा लें, तो माया की एक न चले.

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

विद्या बड़ी या डिग्री?

स्वगृहे पूज्यते मूर्खः स्वग्रामे पूज्यते प्रभुः।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान्सर्वत्र पूज्यते॥

मूर्ख की अपने घर में पूजा होती है. मुखिया की अपने गाँव में पूजा होती है. राजा की अपने देश में पूजा होती है. लेकिन विद्वान की हर जगह पूजा होती है.

हिन्दुस्तान की आबादी आज इतनी बढ़ चुकी है कि हमें अपने खाने-पीने का सामान तक बाहर से आयात करना पड़ता है. जितनी नौकरियाँ नहीं हैं उससे भी ज़्यादा लोग पैदा हो रहे हैं. स्कूल-कोलेजों में दाखिला लेने के लिए जितनी मारा-मारी हिंदुस्तान में है, इतनी शायद कहीं न होगी. सरकारी संस्थानों में भारी छूट देकर छात्रों को पढ़ा-लिखा कर डिग्री दी जाती है, ताकि वो अपनी शिक्षा को उपयोग करते हुए देश की तरक्की में हाथ बटाएँ. लेकिन मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूँ जो डिग्रियों को दुधारू गाय समझते हैं, जितनी ज्यादा, उतना अच्छा. ऐसे में यदि छात्र इन डिग्रियों को सिर्फ वर्दी पर लगे तमगों की तरह इस्तेमाल करेंगे तो पढाई-लिखी की गुणवत्ता का क्या होगा?

कल एक मित्र से बात हो रही थी, जो पेशे से एक पत्रकार हैं. जैसे-जैसे हर कार्यक्षेत्र में प्रतिद्वंद्विता बढ़ी है, नौकरियों के लिये मारा-मारी भी बहुत बढ़ चुकी है. और तो और, अपनी लगी-लगायी नौकरी बचाये रखने के लिये भी कई लोगों को पापड़ बेलने पड़ रहे हैं. वे बता रहे थे कि आजकल सिर्फ एक डिग्री की बदौलत नौकरी मिलना बहुत मुश्किल है. पत्रकार होते हुए भी लोग MBA, LLB जैसी डिग्रियां ले रहे हैं. इन डिग्रियों का शायद वे कभी इस्तेमाल न करें, लेकिन वे कहते हैं कि इन डिग्रियों से उनके नौकरी लगने की संभावना बढ़ जाती है. यदि शिक्षा को जीवन में उपयोग में न लाया जाए, तो उसपर ज़ंग लगते देर नहीं लगती. कुछ सालों बाद LLB का "L" भी याद नहीं रहेगा, लेकिन डिग्री फिर भी नामधारक के साथ चिपकी रहेगी.

पत्रकार यदि LLB की डिग्री लेता है तो ऐसा माना जा सकता है कि न्याय-कानून से जुड़े मसलों पर उसकी रिपोर्टिंग की गुणवत्ता बढ़ेगी, और लोगों को खबर पढ़ने पर मामले के कानूनी कोण भी जानने को मिलेंगे. लेकिन LLB धारक पत्रकार यदि फ़िल्मों और टीवी धारावाहिकों पर रिपोर्टिंग करता है तो बात कुछ हज़म नहीं होती.

अब इस आदमी को पहचानिए:

क्या आप जानते हैं की धीरुभाई अम्बानी के पास कितनी डिग्रियां थी?
जनाब, वे मात्र दसवीं पास थे.

आज की पीढ़ी को ज़रूरत है यह चयन करने की कि उन्हें जीवन में क्या करना है, और फिर उस पेशे से जुडी हर संभव विद्या अर्जित करने के लिए प्रयत्न करने की. जब वे काम करना शुरू करें तो अपनी अर्जित विद्या का पूरा इस्तेमाल कर सकें, जिससे कि स्कूल-कोलेजों में खर्च किया गया समय, धन और परिश्रम न्यायसंगत सिद्ध हो.

फिर भी कुछ लोग सोचते हैं कि डिग्रियों से आदमी की "वैल्यू" बढती है, और मैं ऐसे कुछ लोगों को जानता हूँ जो विभिन्न प्रकार की चार-पाँच डिग्रियां धारण करके घूमते हैं. इन डिग्रियों का आपस-में कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन फिर भी "वैल्यू" बढाने के लिए डिग्रियां ली हुयी हैं. और यदि किन्हीं गूढ़ विषयों पर यदि इन जनाब से चर्चा की जाती है तो उनके पास ज्ञान के नाम पर ठेंगा ही मिलता है. इन बहुडिग्रीधारकों की कई डिग्रियां इन्हें अक्सर घर बैठे-बैठे मिला करती हैं, इन्हें बस हर चार महीने में फीस भिजवानी होती है.

ऐसे में एक संस्कृत का श्लोक याद आ रहा है:

विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्॥

माने कि विद्या से विनय आता है, विनय से पात्रता आती है, पात्रता से धन आता है, और धन से सुख आता है. लेकिन जिस तरह से हिन्दुस्तान में आजकल हालात बदले हैं, उससे लगता है कि इस श्लोक को अब बदलना पड़ेगा.

कोलेजम् ददाति डिग्री, डिग्रीयाद् याति नौकरियाम् ।
नौकरीत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्॥

क्या आप मानते हैं कि बिना विद्या के डिग्रियां धारण करने से आदमी की "वैल्यू" बढती है?

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

ईमेल में शेषनाग

आज एक मित्र से फोन पर गपशप करते हुये उसने जिक्र किया कि उसके पास एक ईमेल आया है जिसमें एक पाँच मुँह वाले साँप के फोटो हैं. उसने वह ईमेल मुझे भी भेजा. जरा देखें:







ईमेल में कुछ यह लिखा था: VERY RARE TO SEE, ONLY SEEN IN BHAGWAT EARLIER, WHEN BASUDEVJI TOOK SRIKRISHNA TO NANDGAON. Forward this to 5 people to receive good news


आँखों पर विश्वास नहीं होता न?

आइये जरा ध्यान से देखते हैं.

सबसे पहली तस्वीर में देखिये कि साँप के सिर तो पाँच हैं, लेकिन परछाई सिर्फ एक ही सिर की क्यों आ रही है? फोटो संपादित करने वाले ने सिर की तो पाँच प्रतियाँ बना दीं, लेकिन परछाइयों की तरफ उसका ध्यान नहीं गया.




फिर दूसरे चित्र में देखिये कि साँप के पाँचों सिर एक दूसरे से हूबहू मेल खाते हैं. यहाँ तक कि उसके गले की धारियों की परछाई भी बिलकुल एक ही तरह की हैं:



एक चालाकी: ऊपर के चित्र में बनाने वाले ने सबसे दाईं ओर के सिर को दूसरी ओर घुमा दिया है, जिससे यह लगे कि साँप वाकई में असली है, लेकिन गरदन की धारियों की परछाई फिर भी बिलकुल एक समान है.

और अब आखिरी चित्र को देखते हैं.



देखिये कि साँप के फन का किनारा कैसे टूटा हुआ दिखायी दे रहा है. फोटो को संपादित करते हुये ऐसी त्रुटियाँ होना आम बात है, और इन्हें दूर करने के लिये घंटों लगाने पडते हैं. इस तस्वीर को बनाने वाले के पास शायद इतना समय नहीं था.

इन तस्वीरों में और भी ढेरों गलतियाँ हैं जिनका जिक्र करने लगे तो दो-तीन घंटे बीत जायेंगे.

यह पंचशिरोमणि शेषनाग सरासर नकली है.

किसी भी बात को कहने-सुनने-देखने भर से सच न मानें. अपने बुद्धि-विवेक का प्रयोग जरूर करें.