शुक्रवार, 18 जुलाई 2008

"अरे इसने परमाणु संधि पर चिट्ठा नहीं लिखा!"

"अरे देखो, कैसा ब्लागर है ये - परमाणु संधि पर कुछ न लिखा, न ही आरुषि हत्याकांड पर"। मेरा जवाब है, "मैं ऐसा ही हूं"। हाल ही में घट रही इन घटनाओं पर अधिकांश चिट्ठाकारों ने अपनी अपनी टिप्पणियां ऐसे बहाई हैं जैसे गंगा में कूड़ा। दो-एक चिट्ठों को छोड़कर बाकी सभी ने अपने व्यक्तिगत विचार ही प्रकट किये थे। अधिकतम लोग या तो इस छोर को पकड़े हुऐ थे, या फिर उस छोर को - बीच में रहने वाला कोई नहीं था।

हालांकि यह कहना सत्य होगा कि चिट्ठे होते ही हैं व्यक्तिगत विचार प्रकट करने के लिये। लेकिन इन प्रकट किये गये विचारों से ये बोध होता है कि भारतीय राजनीति के मुद्दे कितनी तल्लीनता से बहसियाए जाते हैं आम आदमी द्वारा। क्यों न हो, जनतंत्र में "ऐसाईच होता है"।

मैं यह नहीं जानता कि परमाणु संधि देश के हित में है या नहीं, लेकिन एक बात साफ साफ कहना चाहूंगा। यह पहला वक्त नहीं है जब सरकार से समर्थन वापस लेकर उसे गिराने की कोशिश की गयी है। समर्थन-असमर्थन तो आजकल की राजनीति की आम बात बन गयी है। रोज़मर्रा का काम हो गया है। बहुत दुख होता है मुझे जब ऐसे समय में विधायकों की खरीद-फरोख्त होती है। जब जेल में बंद गुंडों को ज़मानत दिलवायी जाती है ताकि वो संसद में बैठकर विश्वासमत में मतदान कर सकें।

३० साल से देख रहा हूं यह सब। मेरी उम्र ही ३० साल है। और उससे पहले के भी किस्से सुन रखे हैं, वो भी कुछ ज्यादा अलग नहीं हैं, बस "रेट" का फर्क था। उन दिनों लाखों में थे, और आजकल करोड़ों में हैं।

जब संविधान को चलाने वाले राजनेताओं को मालूम है कि लोकतंत्र में यही बुराई है जिसके चलते भ्रष्टाचार पनपता है, तो क्यों नहीं बदल देते इस लोकतंत्र को?

या फिर एक नयी स्वतंत्रता मुहिम चलानी होगी? क्या फिर से भारतमाता को भगतसिंह और गांधी पैदा करने पड़ेंगे राजनेताओं की गुलामी से छुटकारा पाने के लिये?

2 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

अफसोसजनक स्थितियाँ हैं.

अनूप शुक्ल ने कहा…

क्या कहें?