शुक्रवार, 15 अगस्त 2008

शासक और शासित: समाधान के लिए पाँच विचार


भारत में शासक और शासित के बीच बढ़ती दूरी और आक्रोष के समाधान के लिए कुछ विचार:
  1. शासक पर भी वही कानून लागू हो जो शासित पर: बहुत से लोग कहेंगे कि नेताओं पर भी वही कानून लागू है जो लोगों पर है। लेकिन शायद आपको पता नहीं है कि संसद की परिधि में जो कुछ भी घटित होता है, वह देश के आम कानून (जो शासितों के लिए बनाया गया है) से बाहर है। संसद में यदि नोटों की गड्डी लहराकर रिश्वत देने का आरोप लगाया जाता है तो इस किस्से को किसी भी न्यायलय की परिधि से बाहर मानकर इसके लिए एक अलग जांच समिति गठित की जाती है, न कि न्यायलय में ले जाया जाता है। मेरा कहना है की संसद को भारत का हिस्सा मानते हुए उसपर वही कानून लागू हो जो हम शासितों पर है।
  2. शासक का शासितों के प्रति उत्तरदायित्व: RTI एक्ट ने इस समस्या के समाधान के लिए पहल की है, बहुत ही सराहनीय कदम है। लेकिन कुछ और बातें गौरतलब हैं। शासक बनने के बाद बहुत ताकत आती है, और शासक से जवाबदेही लेना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी हो जाता है। सिर्फ़ एक ही ऐसा दिन होता है जब शासक शासितों के सामने हाथ जोड़ता है - वह है चुनाव का दिन। चुनाव के दिन जो भी वादे किए जायें, कार्यकाल समाप्त होने पर शासक का उत्तरदायित्व बने कि वह शासितों को अवगत कराये कि कितने वादे पूरे हुए, और कितने नहीं। वादाखिलाफी करने पर जनता को अपने वोट वापस लेने का अधिकार दिया जाए।
  3. जितना बड़ा पद, उतनी बड़ी सज़ा: भ्रष्टाचार ऊपर से शुरू होकर नीचे तक जाता है। इसलिए ऊपर वाले लोगों को भ्रष्टाचार के लिए शासितों से भी कड़ी सज़ा मिले ताकि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे तक न जा पाए।
  4. पक्ष और विपक्ष में वोट डालने की स्वतंत्रता: चुनाव एक बहुत ही सोच समझ कर बनाया गया शासन तंत्र है। आप जिसे चाहें वोट डाल सकते हैं। लेकिन यदि सभी उम्मीदवार एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हों तो क्या किया जाए? चुनावों में सभी उम्मीदवारों के अलावा एक और उम्मीदवार हो, जिसका नाम हो "कोई नहीं"। इसको वे लोग वोट डालेंगे जिन्हें किसी भी उम्मीदवार या पार्टी पर भरोसा न हो।
    यदि श्री "कोई नहीं" चुनाव जीतते हैं, तो इस स्थिति में राजनैतिक सुधारों पर लोकमत से राय ली जाए।
  5. दो पार्टी, बाकी सब निष्पक्ष उम्मीदवार: जिसका मन चाहे एक नई पार्टी बनाकर शासित से शासक बनने निकल पड़ता है। सोचें तो बहुत अच्छी बात है कि कोई भी शासक बनने का सपना संजो सकता है, लोकतंत्र में ऐसा होना भी चाहिए। लेकिन इतनी सारी पार्टियों के चलते किसी को भी बहुमत नहीं मिल पता है। फिर बहुमत बनाने के लिए करोड़ों की खरीद-फरोख्त होती है। शासितों के पैसे को शासकों द्वारा रिश्वत के रूप में प्रयोग किया जाता है। सिर्फ़ दो पार्टी होने से राजनेताओं को आपस में शुरू-शुरू में बहुत बड़े समझौते करने पड़ेंगे, लेकिन इससे बाद में बड़े मुद्दों पर देश को एकजुट होने का मौका मिलेगा
विचार और भी बहुत हैं, लेकिन अभी सिर्फ़ पाँच ही पेश कर रहा हूँ। अपनी राय व्यक्त करें। पक्ष में, विपक्ष में, दोनों में, लेकिन कृपया ज़रूर करें।

2 टिप्‍पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

बड़े भाई ये दो-पार्टी भी धोखा हैं, दोनों में एक भी शासितों की नहीं। बस जेल की एक बैरक से ऊब जाओ तो दूसरी में रहने लगो।
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रक्षा-बंधन का भाव है, "वसुधैव कुटुम्बकम्!"
इस की ओर बढ़ें...
रक्षाबंधन पर हार्दिक शुभकानाएँ!

Ashok Pandey ने कहा…

आपके विचार विचारणीय हैं। शासकों व शासितों के बीच की दूरी पाटने के लिए कुछ किया जाना जरूरी है। आखिर कब तक इतना बोझ सहेगी जनता ...