सोमवार, 23 मार्च 2009

कोई मुझे फाँसी पर लटका दो



मैं देखता रहा गुंडों को चुनाव लड़ते
मैं देखता रहा दुर्जनों को नेता बनते
मैं देखता रहा कि उसने रिश्वत मांगी
मैं देखता रहा कि मैंने रिश्वत दी

मैं देखता रहा धर्म के नाम पर बिछी लाशें
मैं देखता रहा लीक हुए पर्चे
मैं देखता रहा दिल्ली की सड़कों पर गरीबों को पिटते हुए
मैं देखता रहा अनपढ़ लोगों को
मैं देखता रहा पढ़े लिखे अनपढों को भी

मैं देखता रहा अराजकता को
मैं देखता रहा भ्रष्टाचार को भी
मैं देखता रहा अपने देश को बिकते हुए
मैं देखता रहा बिकते हुए देशवासियों को भी

मैं देखता रहा सब कुछ
लेकिन फिर भी मैं देखता रहा
सिर्फ़ देखता ही रहा

इसलिए
कोई मुझे फाँसी पर लटका दो
कोई मुझे फाँसी पर लटका दो

6 टिप्‍पणियां:

not needed ने कहा…

मन के दुखड़े हैं, व्यवस्था पे रोना आता है. भारत का मानस रोता है, तो प्रदीप का यह गीत याद आया:

"आज के इस इंसान को यह क्या हो गया!
इसका पुराना प्यार कहाँ पर खो गया !!

सबका माथा आज झुका है,
आज दुखी हैं जनता सार


कैसी ये मनहूस घडी है , भाइयों में जंग छिडी है ,
कहीं पर खून , कहीं पर ज्वाला , जाने क्या है होने वाला ,
सब का माथा आज झुका है, आज़ादी का जुलूस रुका है ,
चारों ओर दगा ही दगा है, हर छुरे पर खून लगा है,
आज दुखी है जनता सारी, रोते हैं लाखों नर नारी ,
रोते हैं आँगन गलियारे , रोते आज मोहल्ले सारे,
रोती सलमा , रोती है सीता , रोते हैं कुरान और गीता ,
आज हिमालय चिल्लाता है , कहाँ पुराना वो नाता है ,
डस लिया सारे देश को ज़हरीले नागों ने ,
घर को लगा दी आग घर के चिरागों ने!

श्यामल सुमन ने कहा…

अमन चोर देखो अमन बेचते हैं।
कफन चोर देखो कफन बेचते हैं।
पहरूआ बनाया जिसे जन वतन का,
वो दिल्ली में बैठे वतन बेचते हैं।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

Unknown ने कहा…

बहुत ही विचारवान कविता प्रस्तुत की । सच की बयानी इस कविता की जुबानी ।

मुकेश कुमार तिवारी ने कहा…

अनिल जी,

मैं भी बाकी सभी सज्जनों से सहमत हूँ कविता की ऊर्जा के लिये आपको साधुवाद. कविता का अंत फांसी की चाह पर खत्म होना जरूर नैराश्य भर देता है वहीं यह भी सच लगता है कि " मौन रहने से अच्छा है झुंझला पड़ो "

सच कहूं मजा आ गया आपको पढ़ कर.

मुकेश कुमार तिवारी

आलोक सिंह ने कहा…

मैं देखता रहा सब कुछ
लेकिन फिर भी मैं देखता रहा
सिर्फ़ देखता ही रहा
ये हमारी कमजोरी है या आदत या कुछ और पता नहीं पर ये दर्द हर दिल में है और जिसमे दर्द नहीं वो दिल नहीं है .ये विवशता क्यूँ है शायद हम भी कही गलत हैं .

कंचन सिंह चौहान ने कहा…

Saare Shahar ko fansi, mil jayegi Anil Ji is Ghunah ke liye..! aur jo bachenge unhe bagavat ka ilzaam laga kar fansi de di jayegi...!

kabhi kabhi aisa hi apradhbodh mere man me bhi aat hai..!