शनिवार, 21 मार्च 2009

शिक्षा का अलख


मुझे अच्छी तरह याद है बचपन में जब कभी पुस्तक पैरों पर लग जाती थी तो पुस्तक को उठाकर माथे पर लगाकर उसी तरह चूमा जाता था जैसे कि भगवान के प्रसाद को। और आजकल पुस्तकें छात्रावास में पैखाने के ढक्कन पर रखी मिलती हैं। हाँलांकि यह एक सांकेतिक "चिन्ह" ही है, लेकिन इससे पता चलता है कि आजकल शिक्षा को आजकल मात्र पैसे कमाने का एक जरिया ("टूल") समझा जाने लगा है।

किसी भी देश के उत्थान के लिये शिक्षा बहुत महत्त्वपूर्ण है। यदि सभी लोगों को अच्छी शिक्षा मिले, तो वे अपने और अपने देश के लिये छोटे-बडे कदम सोच-समझ कर उठा सकते हैं। हमारे देश को आजादी दिलाने वालों ने हमेशा भारत को उन्नति के पथ पर अग्रसर होने के सपने देखे होंगे, और मुझे पूरा यकीन है कि उन सपनों का आधार शिक्षा ही रही होगी।

लेकिन आज भारत की प्रचलित शिक्षा-पद्धति को देखकर कभी-कभी निराशा होती है। अध्यापक अपनी ही पाठशाला के छात्रों को निजी "ट्यूशन" दे रहे हैं। डाक्टरी, इंजीनियरिंग और अन्य पेशेवर परीक्षाओं की तैयारी के लिये गली-गली में "शिक्षा बेचने की दुकानें" खुल रही हैं। मेरी एक मित्र अपनी ३ साल की बच्ची के लिये कई लाख रुपये का चंदा ("डोनेशन") देकर महंगे प्राइवेट स्कूल में दाखिला करवाकर आयी है। यह पहली-दूसरी कक्षा की बात नहीं, "केजी" के दाखिले की बात कर रहा हूँ। और हर नया खुलने वाला स्कूल शहर में ही खुल रहा है, गाँवों की किसी को सुध नहीं।

भई कलियुग है, पैसे का बोलबाला है। माना कि शिक्षा के व्यापारीकरण को रोका नहीं जा सकता, लेकिन अधिक व्यापारीकरण से शिक्षा में अब बाजारूपन आने लगा है - यह कहाँ तक उचित है?

स्कूल-कालेज में बीसियों साल बिताने के बाद भी यदि किंकर्तव्यविमूढ विचार रहें तो शिक्षा असफल रही। शिक्षा का ध्येय है व्यक्ति को सही-गलत की पहचान बताना, मुश्किल समस्याओं का हल निकालना, राष्ट्र के विकास के लिये काम करना, और सबसे बड़ी बात - आदमी को अपनी पहचान सिखाना।

पाठशाला में पाठ पढाये जा सकते हैं लेकिन शिक्षा तो छात्र को खुद ही "गृहण" करनी होगी। यदि छात्र मेहनत करता रहे तो "जड़मति" भी "सुजान" बन जाता है। मैं बचपन से सरकारी स्कूलों में पढ़ा। लेकिन मेरे हौसले और मेहनत में कोई कमी न हुयी, तो मैं भी डाक्टर बन गया।

भारत की शिक्षा पद्धति को अब बदलने की आवश्यकता है। हमें न सिर्फ "अधिक" स्कूल-कालेज खोलने होंगे, बल्कि उनमें दिये जाने वाली शिक्षा के स्तर को भी ऊँचा उठाना होगा। नैतिक शिक्षा बचपन से ही दी जाये। व्यावसायिक कोर्स में दाखिले के लिये बारहवीं कक्षा के अंकों की सीमा हटायी जाये। सभी शैक्षिक संस्थानों से दाखिले की आयुसीमा पूरी तरह हटाकर शिक्षा के द्वार सभी के लिये खोले जायें। ये विचार सिर्फ एक "शुरुआत" हो सकते हैं, लेकिन आगे बढने के लिये बहुत जरूरी हैं।

यदि हम भारत को फिर से सोने की चिडिया बनाना चाहते हैं तो हमें भारत में शिक्षा का अलख जगाना होगा।

2 टिप्‍पणियां:

mamta ने कहा…

बहुत अच्छा लिखा है ।

सही कहा शिक्षा आज कल शिक्षा कम बिजनेस ज्यादा बन गई है ।

अनिल कान्त ने कहा…

शिक्षा का बाजारीकरण बहुत लम्बे अरसे से चल रहा है ....यह असमानता भी पैदा कर रहा है