आज शाम की चाय एक सहपाठिन के साथ हुयी। वह भी डाक्टर है, और मेरे ही विश्वविद्यालय में "जनस्वास्थ्य" का कोर्स कर रही है। वह बता रही थी कि कुछ दिन पहले उनके परिवार के पंडितजी ने कोई अनुष्ठान किया था। पंडितजी ने घी और जड़ी-बूटियों की अग्नि-आहुति दी, मंत्रोच्चारण किया। फिर आखिरी में प्रसाद-वितरण करते हुये मेरी मित्र से पूछा, "बेटी, मैंने जो मंत्र पढ़े, उनसे तुमने क्या सीखा?"
मेरी मित्र हक्की-बक्की रह गयी। आज तक उसने कई अनुष्ठानों में हिस्सा लिया, कई मंत्र सुने, लेकिन मंत्र संस्कृत में होने की वजह से कभी कुछ समझ नहीं पायी। उसने कहा "पंडितजी मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया।"
पंडितजी बोले "यदि समझ में नहीं आ रहा था, तो मुझसे पूछा क्यों नहीं? बिना समझे कोई भी कर्म करना अंधविश्वास का प्रतीक है!"
यह वार्तालाप जब वह सुना रही थी, तो उसके चेहरे की भावभंगिमओं को मैं पल-पल बदलते देख रहा था। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि कलियुग में भी ऐसा ज्ञानी पंडित मिल सकता है, जो विश्वास करने से पहले परखने की बात कहे। मेरी मित्र ने आगे बताया कि पंडितजी संस्कृत और मनोविज्ञान में डाक्टरेट की उपाधि रखते हैं।
पंडितजी ने कई और रोचक बातें बताईं - जैसे कि बिल्ली रास्ता काटे तो घर से बाहर क्यों नहीं निकलते (यदि घर से बाहर निकल पड़े तो बिल्ली घर में रखा दूध पी जायेगी, इसलिये वापस घर में घुसो, दूध की देखभाल करके फिर बाहर निकलो); कोई छींकता है तो घर से बाहर क्यों नहीं जाते (छींकने वाले को शायद सर्दी जुकाम है, बाहर जाकर वह औरों को भी जुकाम की बीमारी दे सकता है, इसलिये कुछ समय तक घर में ही रहें)। मैं इन बातों को अभी तक अंधविश्वास समझता था। लेकिन आज पता चला कि इनके पीछे भी कभी कुछ कारण रहे होंगे। लेकिन सैकड़ों सालों में यह बातें पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपना ज्ञान खोती रहीं, और अंधविश्वास बन गयीं।
प्राचीन भारत में एक समय था जब "पंडित" और "ज्ञानी" पर्यायवाची शब्द हुआ करते थे। लेकिन जिस तरह आजकल मैं पंडितों को पाखंड और लालच की कीचड़ में सने देखता हूँ, उससे मेरा तो जैसे "पंडितों" से विश्वास ही उठ रहा था। बस कुछ ही असली पंडितों से पाला पड़ा जिन्होंने पंडिताई की लाज रखी हुयी है।
शिक्षा का उद्देश्य होता है व्यक्ति को अपने आसपास हो रही घटनाओं के प्रति सचेत करना, प्रश्न और विचार-विमर्श करना। यदि शिक्षित व्यक्ति को कुछ समझ में नहीं आये, तो वह सवाल जरूर पूछेगा, कि यह क्यों, वह क्यों, इत्यादि। किसी भी बात को सुनें, तो मूल तत्व जानने की चेष्टा करें। मूल तत्व जाने बिना कभी विश्वास न करें। नहीं तो मूल तत्व धरा ही रह जायेगा, और बिल्ली दूध पी जायेगी!
14 टिप्पणियां:
दिलचस्प जानकारी
कहानी रोचक है।
अंधविश्वासों के पीछे भी कुछ जरूर है।
बधाई।
काफी कुछ तो अनुष्ठान मान कर चुपचाप कर लेते हैं, क्या क्या समझें.
वैसे चिन्तन अच्छा है.
कुछ प्रचलित विश्वासों को तर्क सम्मत ठहराया जा सकता है पर हमारे यहाँ तो हर पुराने विश्वास के पीछे कोई वैज्ञानिक तर्क खोजने की होड़ सी मची है.भारत एक नई धर्म(भ्रम?) क्रांति से गुज़र रहा है.रोचक पोस्ट.
वाकई सही पक्ष रखा आपने,अनिल जी. 'हिंद स्वराज' पर मेरी पोस्ट पर टिप्पणी का धन्यवाद. आप यह पुस्तक 'नवजीवन प्रकाशन', अहमदाबाद से प्राप्त कर सकते हैं. भारत में तो रेलवे स्टेशनों के 'सवोदय बुक स्टाल्स' में भी यह पुस्तक मिल जायेगी. इस पुस्तक से जुडी अन्य जानकारी भी आगे पोस्ट होती रहेगी. नियमीत आगमन बनाये रखें.
हमारी समस्या यह है की हम मूल के भूल कर आडम्बरों में घिरते चले गएँ हैं ..इतना की निकलना मुस्किल हो गया है
अच्छा लेख.....!
हर पुराने विश्वास के पीछे यदि कोई वैज्ञानिक तर्क ढूंढना मेरे विचार में एक स्वस्थ शुरुआत है। सोच-समझकर किये गये कर्मों से ही कुछ सीखने को मिलता है। और सीखेंगे नहीं तो आगे कैसे बढ़ेंगे?
मिश्रा जी, पुस्तक के बारे में बताने के लिये धन्यवाद! आज ही किसी से कहकर मंगवाता हूँ!
panditon ke pankhandi hone ke pichhe bhi karan hai.. panditai unka pesha hai jisake badale mein samaj unhe 11 rupaye deke samjhta hai ki isase unke bachhe pad lenge, unki shadi ho jayegi, unhe tv, cell jaisi suvidayein mil jayengi. agar pandit apni taraf se maang kare to kaha jata hai ki pandit hoke lalachi hona achhi baat nahi.. ab unke pass do hi vikalp the yaan to apna pushtaini pesha chhode yaan phir ??
हम लोग कारण जानने का प्रयास भी तो नहीं करते ....वैसे रोचक जानकारी के लिए धन्यवाद ..
अच्छी जानकारी .
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