कॉलेज पास करने के बाद मेरा एक दोस्त नौकरी ढूंढ रहा था। उसे तीन महीने के इंतजार के बाद आखिरकार नौकरी मिल ही गयी। दक्षिण भारत में एक राष्ट्रीयकृत बैंक में काम मिला था। यूँ तो मूल रूप से वह उत्तर प्रदेश का रहने वाला था, लेकिन रोज़ी-रोटी की खातिर उसने वह नौकरी स्वीकार कर ली। अपना सब कुछ छोड़कर आँसूभरी आँखें लेकर वह रेल की खिड़की से अपनी बूढ़ी माँ को टुकुर-टुकुर देख रहा था।
मेरे दोस्त ने सारा जीवन अपने छोटे से कस्बे में ही बिताया था। दक्षिण भारत में उसका पहला अनुभव था। शुरू के कुछ दिन तो ऐसे ही निकल गये। फिर एक हफ्ते बाद वह जब रेल में सवार होकर काम पर जा रहा था, तो अचानक ही उसके मोबाइल की घंटी टुनटुनाई। देखा तो माँ का फोन था। खुशी-खुशी वह माँ से फोन पर बात करने लगा। अभी बात करते एक मिनट भी नहीं हुआ था कि उसके आसपास के लोगों ने झुंड बनाकर उसकी पिटायी करनी शुरू कर दी। उसे समझ में ही नहीं आया कि आखिर ऐसा हुआ क्यों। इतने में अगला स्टेशन आ गया। उतरते-उतरते उसे पीटने वाले लोगों ने अंगरेजी में कहा "How dare you speak Hindi here?" (तुम्हारी यहाँ हिंदी बोलने की हिम्मत कैसे हुयी?)
जब यह बात उसने मुझे बतायी तो मुझे विश्वास नहीं हो रहा था। मुझे लगा कि वह मुझसे झूठ बोल रहा है। लेकिन बाद में जब वह मुझसे मिलने दिल्ली आया तो मैंने उसके शरीर पर भरे हुये घावों के दाग देखे। वाकई राष्ट्रभाषा बोलने पर अपने ही राष्ट्र में पिटने का भुक्तभोगी बना मेरा दोस्त!
जब से मैं अमेरिका में हूँ, भारत के कोने-कोने से आये लोगों के साथ रह रहा हूँ। यहाँ भी कुछ ऐसे ही हालात देखे। दक्षिण भारतीयों का हिंदी-विरोध देखा। उत्तर भारतीयों का द्रविड़भाषाओं के प्रति विरोध भी देखा। मणिपुर से आये एक भारतीय नवयुवक को जापानी होने का नाटक करते भी देखा।
जिन भाषाओं को मैं देश को जोड़ने का सूत्र समझता था, वे देश को तोड़ती-सी दिखायी दीं। और जिस अंग्रेजी को विदेशी मजबूरी समझकर सीखा, उसी को सभी भारतीय शिरोधार्य किये हुये हैं।
बहुत दुख हुआ।
अपने इस चिट्ठे को शुरू-शुरू में प्रचार करने के लिये हर ईमेल के अंत में लिंक लगाकर भेजता था। बाद में किसी घनिष्ठ मित्र ने ऐसा न करने की सलाह दी। उसने कहा "लोग मानने लगे हैं कि अनिल पागल हो चुका है। पढ़ा-लिखा डॉक्टर होने के बावजूद हिंदी में लिख रहा है।"
अपनी ही भाषा में लिखने और उसके प्रचार-प्रसार करने पर अपने ही लोग मुझे पागल बता रहे हैं।
लेकिन मैं इस ब्लाग को हरगिज बंद नहीं करने वाला। जितना लोग मुझे गालियाँ देंगे, मैं उतना ही और ज्यादा लिखूंगा। तब तक लिखता रहूँगा जब तक इन नकली भारतीयों को अपनी हालत पर तरस नहीं आना शुरू होगा। दो चीनी लोगों को पहले ही हिंदी सिखा चुका हूँ, अब गोरे-काले-पीले सब लोगों को हिंदी सिखाउंगा। पूरे अमेरिका को हिंदीमय बना दूंगा।
कर लो क्या कर सकते हो।
शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009
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16 टिप्पणियां:
मैं क्या कहूँ? भुक्तभोगी हूँ। बहुत लम्बे समय तक दक्षिण में रही। कर्नाटक में, आन्ध्र में कई जगह। आन्ध्र प्रदेश में कई बार बहुत कुछ सुना,जैसे तेलुगु नहीं आती तो क्यों यहाँ रहती हो आदि। यह तब जब मेरी दीदी का विवाह तेलुगु से,भतीजियों का कन्नड़ व तमिल से हुआ है। सो मेरे मन में उनके प्रति कोई दुर्भावना होने की सम्भावना बहुत कम है। तमिलनाडू की स्थिति तो इतनी खराब है कि सीधे ही कह दिया जाता है कि जब इस काम के लिए तमिल ब्राह्मण मिल रहा है तो उत्तर भारतीय की क्या आवश्यकता!यह बात में शहरों व आइ टी की नहीं कर रही। छोटी जगहों में लगे बड़े बड़े कारखानों की कर रही हूँ। सो जातिवाद, प्रान्तवाद व भाषावाद का विष जो हमारे भीतर भरा पड़ा है वह इतनी सरलता से नहीं खत्म होगा।
आपका प्रयत्न सराहनीय है। हम प्रयास ही कर सकते हैं। वैसे मुझे लगता है ये अन्तर्प्रान्तीय विवाह भी कुछ बदलाव तो लाएँगे ही।
घुघूती बासूती
भाई साहब दक्षिण भारत के कई किस्से मेरे दोस्तों ने बताये हैं ...जो हिंदी जानते हुए भी हिंदी नहीं बोलते और अगर कोई उनसे हिंदी में कुछ पूंछे तो जवाब नहीं देते ...लेकिन अगर हिंदी में गाली बक दो तो सब समझ जाते हैं और लड़ने लगते हैं
हम भारतीयों को विदेशी चलता है, मगर अपने ही देश का नहीं. यही वजह रही 1000 साल की गुलामी की.
मगर नई पिढ़ी ज्यादा समझदार है.
अनिल जी,
याद दिला दी 70 के दशक के कलकत्ते की। सारी जगह हिंदी लिखे पर कालिख पोत दी जाती थी। खासकर रेल्वे-स्टेशनों का बुरा हाल होता था। कुछ खास जगहों जैसे दमदम, बेलघरिआ जैसी जगहों मे, जो कलकत्ता शहर से लगे इलाके हैं, लोग हिंदी बोलते घबराते थे। लोकल ट्रेन मे शायद ही कोई हिंदी पत्रिका पढने की 'जुर्रत' करता हो। हाथा-पाई की नौबत नही आती थी पर आस-पास के लोगों की नज़रें बहुत कुछ कह जाती थीं। और यह सब तब था जब कि हिंदी फिल्में वहां धूम मचाती रहती थीं। बांग्ला फिल्मों का गढ होने के बावजूद।
धीरे-धीरे सबको नेताओं की करतूतों का एहसास होने लगा, समझ में आने लगा कि इससे प्रदेश का विकास अवरुद्ध हो रहा है, नयी पीढी ने भी समझदारी दिखाई। वाम की सरकार बनने के बाद खुद नेताओं को अपने बोए के करण अड़चनें आयीं। हठधर्मिता कम हुई तब जा कर हालात सामान्य हो पाये हैं।
प्रान्त-वाद, क्षेत्र-वाद व् भाषा -वाद को कम करने के कुछ तरीकें यह हैं (रास्ट्र-व्यापी सोच रखने वालों का काम है अपने उद्देश्य में लगे रहना, लगे रहिये, यह विष कम तभी हो सकता है):
१. देश में त्रि-भाषी फार्मूला कडाई से लागू हो. उस में तीसरी भाषा उत्तर भारतीय लोग दक्षिण भाषा सींख कर पूरा करें, तथा दक्षिण में हिंदी सीख कर. वैसे तो मैंने भी स्कूल में ३ भाषाएँ पढ़ी: हिंदी, इंग्लिश तथा संस्कृत. होना ये चेयेह था कि एक दक्षिण भाषा का विकल्प आसानी से उपलब्ध होता तथा उसे सिखने के लिए प्रोत्साहन (संस्कृत पढने का मुझे कोई मलाल नहीं, यधपि).
२. अंतर -जातीय तथा अंत- क्षेत्रीय विवाहों पर जोर.
३. नोक्रियों के लिए लोग एक क्षेत्र से दुसरे ज्यादा मूव करें ( इतना प्रैक्टिकल नहीं यह).
पहले तो, राज्यों की नींव भाषाई आधार पर रखना ही गलत था...दूसरे, रही सही क़सर, हर राज्य में पहले से ही फैले हुए ठाकरों ने पूरी कर दी है
अनिल जी, आप अमरीकियों और सारी दुनिया को तो हिंदी सिखा देंगे, पर अपने ही देश वालो को कैसे सिखायेंगे??.......यह मैं आप पर व्यंग नहीं कर रहा हूँ, यह मैं अपने देश के जड़बुद्धि देशवासियों से दुखी हो कर कह रहा हूँ.........चलो माना आपको अपने क्षेत्रीय भाषा से इतना प्रेम और स्नेह है, की अगर आप हिंदी सुनते है तो उसकी पिटाई कर देते है....पर हे अंधभक्त, तुम्हे तब लज्जा नहीं आती जब तुम एक विदेशी भाषा में बात करते हो?? तब कहाँ जाता है तुम्हारा भाषा प्रेम??
अपनी भाषा से लगाव का मतलब यह तो नहीं की दूसरे से घृणा करने लगे?? दूसरी बात, 'हिंदी' को पूरे उत्तर भारीयों की भाषा मान ली जाती है. सच्चाई यह है की उत्तर भारत के हर क्षेत्र की अपनी एक अलग भाषा है. अवधि, भोजपुरी, पञ्जाबी, राजस्थानी, हरियाणवी, मैथली और सैकडो भाषाएँ जिसकी गिनती भी मुश्किल है............अगर हर उत्तर भारतीय भी अपने क्षेत्रीय भाषा के प्रेम में पड़ कर हिंदी को ठुकराने लगे, तो फिर हिंदी का क्या हो?? लोगो को यह समझना चाहिए की उत्तर भारतियों ने हिंदी को जो की उनकी प्रथम भाषा नहीं है, फिर भी गले लगाया है.......अगर वे लोग हिंदी को एक संपर्क भाषा के रूप में स्वीकार कर सकते है, तो बाकि लोग क्यों नहीं??
कुछ कुबुद्धी के लोग तुंरत पलट कर तर्क देंगे की हिंदी उत्तर भारतियों के क्षेत्रीय भाषा से "ज्यादा निकट" है, इस लिए वो लोग बोल लेते है. हमारी भाषा से बोहत दूर है.......इस लिए हम इसे नहीं बोलते. उनसे मेरा इतना ही कहना है, सही है आपकी भाषा से हिन्दी कोसो दूर है.......पर कम से काम आपके देश की भाषा है. और जड़ो को तलाशेंगे तो तो पायेंगे की आपकी भाषा और हिन्दी चचेरे भाई है.........कम से कम उनकी तो भाषा नहीं है जो आपके ही पीठ पर चाबुक बरसाते थे? अगर देश को जोड़ना है, तो एक संपर्क भाषा तो बनानी ही पड़ेगी. तो किसे स्वीकार किया जाये, चचेरे भाई को, या तुम्हारी अस्मिता लूटने वाले अजनबी को??
[पिछली टिप्पणी में लिंक ग़लत हो गया था] आप का ब्लॉग देख कर बहुत अच्छा लगा। बन्द करने का क्या मतलब है। मुझे भी अमरीका में क्या,भारत में लोग पागल समझते हैं, हिन्दी लिखने के लिए। पिछली बार भारत गया था, तो मैंने अपने सेलफोन में सब पते, सेटिंग्स आदि हिन्दी में रखी थीं। सब को अजीब लगता था। दक्षिण के हिन्दी विरोध की भी अजीब कहानी है, पर क्या करें। हाल में याहू उत्तर पर किसी ने इस विषय में प्रश्न पूछा था, तो मैंने उसे भी यह सलाह दी कि भैया पिटना नहीं है तो चेन्नइ में अंग्रेज़ी ही बोलना।
आज आप के चिट्ठे पर आकर यह भी देखा कि IDN (अन्तर्राष्ट्रीय डोमेन नाम) चालू हो गए हैं। इस विषय पर मैं ने कुछ समय पहले निरन्तर वेबपत्रिका के लिए एक लेख का अनुवाद किया था। अभी वह साइट अनुपलब्ध है, पर गूगल की कापी यहाँ पर है।
जिन भाषाओं को मैं देश को जोड़ने का सूत्र समझता था, वे देश को तोड़ती-सी दिखायी दीं। और जिस अंग्रेजी को विदेशी मजबूरी समझकर सीखा, उसी को सभी भारतीय शिरोधार्य किये हुये हैं।
अनिल जी,
आपका राष्ट्रभाषा के प्रति ये सम्मान देख गदगद हूँ ....इस्वर आपको सफलता दे ...!!
ASHCHRYAJANAK KINTU SATYA: "HINDI BHARAT KI RASHTIRYA BHASHA NAHI HAI"
:(
(http://en.wikipedia.org/wiki/Hindi)
" दो चीनी लोगों को पहले ही हिंदी सिखा चुका हूँ, अब गोरे-काले-पीले सब लोगों को हिंदी सिखाउंगा। पूरे अमेरिका को हिंदीमय बना दूंगा।
कर लो क्या कर सकते हो।
"
SHABASHI DE SAKTE HAIN....
...DIL KHOL KAR....
:)
@ANIL KANT JI:
APNE BILKUL SAHI KAHA...
SAME EXPERIENCE....
".लेकिन अगर हिंदी में गाली बक दो तो सब समझ जाते हैं और लड़ने लगते हैं"
अनिल भाई, लगभग रोज, नेट पर हिन्दी ब्लागो की दुनिया मे घुमता हु इसलिये आश्चर्य हो रहा है कि आपके ब्लाग पर इतनी देर से कैसे पहुचा ? खैर देर आया दुरुस्त आया.
आपको बहुत सारी बधाई.
कभी मौका मिला तो आपके हाथ की बनी चाय पीने जरुर आउन्गा.पढाई से एम.बी.ए., तजुर्बे से बिजनेसमेन,पेशे से पत्रकार और शौक से हिन्दी की एक सन्स्था से जुडा हु. सुबोध
Computer Ka Avishkar Kisne Kiya
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