मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

विद्या बड़ी या डिग्री?

स्वगृहे पूज्यते मूर्खः स्वग्रामे पूज्यते प्रभुः।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान्सर्वत्र पूज्यते॥

मूर्ख की अपने घर में पूजा होती है. मुखिया की अपने गाँव में पूजा होती है. राजा की अपने देश में पूजा होती है. लेकिन विद्वान की हर जगह पूजा होती है.

हिन्दुस्तान की आबादी आज इतनी बढ़ चुकी है कि हमें अपने खाने-पीने का सामान तक बाहर से आयात करना पड़ता है. जितनी नौकरियाँ नहीं हैं उससे भी ज़्यादा लोग पैदा हो रहे हैं. स्कूल-कोलेजों में दाखिला लेने के लिए जितनी मारा-मारी हिंदुस्तान में है, इतनी शायद कहीं न होगी. सरकारी संस्थानों में भारी छूट देकर छात्रों को पढ़ा-लिखा कर डिग्री दी जाती है, ताकि वो अपनी शिक्षा को उपयोग करते हुए देश की तरक्की में हाथ बटाएँ. लेकिन मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूँ जो डिग्रियों को दुधारू गाय समझते हैं, जितनी ज्यादा, उतना अच्छा. ऐसे में यदि छात्र इन डिग्रियों को सिर्फ वर्दी पर लगे तमगों की तरह इस्तेमाल करेंगे तो पढाई-लिखी की गुणवत्ता का क्या होगा?

कल एक मित्र से बात हो रही थी, जो पेशे से एक पत्रकार हैं. जैसे-जैसे हर कार्यक्षेत्र में प्रतिद्वंद्विता बढ़ी है, नौकरियों के लिये मारा-मारी भी बहुत बढ़ चुकी है. और तो और, अपनी लगी-लगायी नौकरी बचाये रखने के लिये भी कई लोगों को पापड़ बेलने पड़ रहे हैं. वे बता रहे थे कि आजकल सिर्फ एक डिग्री की बदौलत नौकरी मिलना बहुत मुश्किल है. पत्रकार होते हुए भी लोग MBA, LLB जैसी डिग्रियां ले रहे हैं. इन डिग्रियों का शायद वे कभी इस्तेमाल न करें, लेकिन वे कहते हैं कि इन डिग्रियों से उनके नौकरी लगने की संभावना बढ़ जाती है. यदि शिक्षा को जीवन में उपयोग में न लाया जाए, तो उसपर ज़ंग लगते देर नहीं लगती. कुछ सालों बाद LLB का "L" भी याद नहीं रहेगा, लेकिन डिग्री फिर भी नामधारक के साथ चिपकी रहेगी.

पत्रकार यदि LLB की डिग्री लेता है तो ऐसा माना जा सकता है कि न्याय-कानून से जुड़े मसलों पर उसकी रिपोर्टिंग की गुणवत्ता बढ़ेगी, और लोगों को खबर पढ़ने पर मामले के कानूनी कोण भी जानने को मिलेंगे. लेकिन LLB धारक पत्रकार यदि फ़िल्मों और टीवी धारावाहिकों पर रिपोर्टिंग करता है तो बात कुछ हज़म नहीं होती.

अब इस आदमी को पहचानिए:

क्या आप जानते हैं की धीरुभाई अम्बानी के पास कितनी डिग्रियां थी?
जनाब, वे मात्र दसवीं पास थे.

आज की पीढ़ी को ज़रूरत है यह चयन करने की कि उन्हें जीवन में क्या करना है, और फिर उस पेशे से जुडी हर संभव विद्या अर्जित करने के लिए प्रयत्न करने की. जब वे काम करना शुरू करें तो अपनी अर्जित विद्या का पूरा इस्तेमाल कर सकें, जिससे कि स्कूल-कोलेजों में खर्च किया गया समय, धन और परिश्रम न्यायसंगत सिद्ध हो.

फिर भी कुछ लोग सोचते हैं कि डिग्रियों से आदमी की "वैल्यू" बढती है, और मैं ऐसे कुछ लोगों को जानता हूँ जो विभिन्न प्रकार की चार-पाँच डिग्रियां धारण करके घूमते हैं. इन डिग्रियों का आपस-में कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन फिर भी "वैल्यू" बढाने के लिए डिग्रियां ली हुयी हैं. और यदि किन्हीं गूढ़ विषयों पर यदि इन जनाब से चर्चा की जाती है तो उनके पास ज्ञान के नाम पर ठेंगा ही मिलता है. इन बहुडिग्रीधारकों की कई डिग्रियां इन्हें अक्सर घर बैठे-बैठे मिला करती हैं, इन्हें बस हर चार महीने में फीस भिजवानी होती है.

ऐसे में एक संस्कृत का श्लोक याद आ रहा है:

विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्॥

माने कि विद्या से विनय आता है, विनय से पात्रता आती है, पात्रता से धन आता है, और धन से सुख आता है. लेकिन जिस तरह से हिन्दुस्तान में आजकल हालात बदले हैं, उससे लगता है कि इस श्लोक को अब बदलना पड़ेगा.

कोलेजम् ददाति डिग्री, डिग्रीयाद् याति नौकरियाम् ।
नौकरीत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्॥

क्या आप मानते हैं कि बिना विद्या के डिग्रियां धारण करने से आदमी की "वैल्यू" बढती है?

4 टिप्‍पणियां:

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

यह तो वही बात हुई की अक्ल बड़ी या भैस.
चिंतनीय विषय पर ध्यान आकर्षित करती पोस्ट,आभार.

Abhishek Ojha ने कहा…

आखिरी श्लोक एकदम मस्त :)

Gaurav Pandey ने कहा…

anil ji , you arite very well. I almost read your every post.

Unknown ने कहा…

kya baat hai , bahut accha likte hain aap