गुरुवार, 31 जुलाई 2008

सत्यकथा: गोरेपन की क्रीम


एक बार मैं बस में जा रहा था। खचाखच भीड़ थी - नौ बजे वाली। कोई काम पे जा रहा था तो कोई पढ़ने। मेरे साथ एक बुजुर्ग व्यक्ति खड़े थे - नाटा कद, सफेद धोती, मैला कुर्ता, सफेद पगड़ी, और हाथ में छतरी। बिलकुल वैसा पहनावा जैसे मेरे दादा और नाना का था।

उनके बगल में दो नौजवान खड़े थे जो बड़ी मुश्किल से उनसे "टच" न होने की असफल चेष्टा कर रहे थे। दोनों नौजवान आंखों पे काला चश्मा लगाये हुये थे। एक ने तो कान छिदवा के बाली भी पहन रखी थी। उनकी शक्लों से पता लग रहा था कि वे बड़े "embarrassed" महसूस कर रहे थे उस ग्रामीण बुजुर्ग के साथ खड़े होकर। बेचारे दोनों दोस्त बार-बार एक दूसरे की तरफ देखकर काले चश्मे के उस पार से आंखों ही आंखों में इशारे कर रहे थे।

फिर आखिरकार उनमें से एक से रहा न गया। युवा पीढ़ी को सिखाये गये अभिव्यक्ति-भाव के चलते वो दूसरे से बोल ही पड़ा: "I don't know why these village people wear dirty clothes. It's so smelly. I wish he gets down soon". (पता नहीं क्यों ये गांव के लोग मैले कपड़े पहनकर आ जाते हैं। इतनी बदबू आ रही है। दुआ करें कि ये जल्दी बस से उतरे)। अंगरेजी में बोला ताकि बुजुर्ग को पता न चले कि उनके बारे में बात हो रही है।

कुछ देर में भीड़ छंटनी शुरू हुयी। दोनों नौजवानों को कुछ आशा बंधी कि कब बुड्ढा उतरे। आखिरकार मछली बाजार आ ही गया। इस बार दूसरा नौजवान बोला "Yaar the fish market has come. I think he should get down here" (यार मछली बाजार आ गया, लगता है ये यहीं पे उतरेगा)। लेकिन महाशय जस-के-तस वहीं खड़े रहे, नहीं उतरे मछली बाजार पर।

सफर चलता रहा। जो कोई भी गंदी जगह दिखती, नौजवानों को उम्मीद बंधती कि अब ताऊ उतरा। लेकिन ताऊ है कि उतरने का नाम न ले।

आखिरकार दोनों का कौलेज आ गया। दोनों नौजवान कूद कर उतर पड़े और लंबी सांस लेकर बोले "Oh my God! I'm glad to be out of the bus! I was about to die there!" (हे राम, बड़ी खुशी हो रही है बस से बाहर आकर। मैं तो अंदर मरा जा रहा था)।

इतने में पीछे से उन्हीं बुजुर्ग की आवाज़ आयी। दोनों ठिठक कर रुक गये।

बुजुर्ग बोले "Excuse me, do you know where is the Dean's office?" (माफ करना, क्या तुम्हें पता है कि प्राध्यापक का कमरा कहां है?)

दोनों नौजवानों की सिट्टी-पिट्टी गुम! बुडढा सब कुछ समझ रहा था बस में, कि कैसे वे उसका मजाक उड़ा रहे थे। दोनों के चेहरों पर पसीना छूट रहा था शर्म के मारे। दोनों के चेहरों पर लगायी गयी गोरेपन की क्रीम पिघलकर उतर रही थी।

(ये वाकया मैंने पाँच साल पहले दिल्ली की एक बसयात्रा के दौरान देखा था। आज रविशंकर जी की ये पोस्ट पढ़कर अचानक ही दिमाग में कौंधिया गया।)

4 टिप्‍पणियां:

शोभा ने कहा…

सुन्दर अभिव्यक्ति।

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

अच्छा उदाहरण। कपड़ों और रहन सहन से किसी व्यक्तित्व को नहीं मापा जा सकता। विद्वान का पता तभी लगता है जब वह बोलता है।

राज भाटिय़ा ने कहा…

अनिल जी बहुत ही अच्छा वाकया बताया,आज की(सभी नही)यह पीढी मां वाप के पेसो पर ऎश करते हे, तमीज नाम मात्र कॊ नही, यु कहिये इन्हे सीखाया ही नही गया तमीज नाम की चीज के बारे, पेसे कम होने पर गले से चेन, बच्चो के हाथो से घडियां ओर फ़िर चोरिया करते हे,मेने भी देखे हे एक दो वाकया, धन्यवाद एक सत्य बताने का

Kumar Swasti Priye ने कहा…

साहेबे-आलाम, गोरेपन की क्रीम उतारने का कितना सुन्दर तरीका है ये!
दूसरा उन बुज़ुर्ग को सलाम करता हूँ जिसने उन लड़कों को इतनी आसानी से बिना हिंसा के सबक सिखा दिया.
मैं तो अस्त्र और शस्त्र दोनों का प्रयोग करता...:)
इस मसले पर बशीर बद्र का एक शेर मौजूं मालूम होता है.....
बाबा बड़े भोले थे सबसे यही कहते थे,
कुछ ज़हर भी होता है अंग्रेजी दवाओं में.