शुक्रवार, 1 अगस्त 2008

सूर्या ग्रहण और शिक्षा का स्तर



मेरे एक मित्र हैं जो एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में इंजीनियर हैं। उनके पास एक स्नातक डिग्री, एक स्नातकोत्तर डिग्री और एक MBA डिग्री है। आज सुबह ही उनका एक ई-मेल आया है, जिसमें उन्होने विस्तार से बताया है कि सूर्यग्रहण के दुष्प्रभावों से बचने के लिये कौनसे धर्म के लोग कौनसे मंत्रों का उच्चारण करें, किस राशि के लोगों पर क्या प्रभाव पड़ सकता है, और उनसे बचने के क्या उपाय हैं।

पढ़कर पता चला कि पढ़े-लिखे होने में और शिक्षित होने में पीतल और सोने जैसा फर्क होता है।

मेरी ये समझ है कि शिक्षा का उद्देश्य होता है आदमी को जागरूक बनाना, विकसित तरीके से सोचना, ताकि वो सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास न करते हुए अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करे। भारत के विश्वविद्यालय और पाठशालाएं इस लक्ष्य में कहीं विफल होती तो नहीं दिख रहीं?

आप बताएं, क्या राय है आपकी?

6 टिप्‍पणियां:

अंकुर गुप्ता ने कहा…

AGREE WITH YOU

Pramendra Pratap Singh ने कहा…

धर्मिक परमपराओं को एक सिरे से गलत बताया मेरे हिसाब से ठीक नही है क्‍योकि आज के दौर में हम भले पढ़ लिख लिये हो किन्‍तु शिक्षित नही हुये है। चार किताबी अक्षर के ज्ञान ही शिक्षा का पैमाना होता तो एक अनपढ़ कबीर आज पीएचडी शोध धारकों के शोध के विषय न होते।

बहुत से कामों में हमेंशा माऍं अपने बच्‍चों को कहती है कि ऐसा न करों पाप पढ़ेगा इससे उद्देश्‍य यही होता है कि बाल्‍यकाल से बच्‍चों में बड़ो के सम्‍मान और बात सुनने की आदत पढ़ जाती है और माता पिता के कटु से कटु बातों से वह आशीर्वाद मानकर चलता है।

जहाँ तक धर्मिक मान्‍यताओं के अनुसार खड़े होकर लघुशंका (मूत्रत्‍याग) नही करना चाहिये, आप कहेगे कि यह यह देखों कैसी असभ्‍यता वाली बात कह रहा है बैठ कर करते से पैंट की क्रिच खराब हो जायेगी किन्‍तु वास्तविकता यह है गंगदी के छिटे आपने उपर पढ़ने से बच जायेगें।

जहाँ तक सूर्यग्रहण की मान्‍यता है तो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी नंगी आँखों से देखना गलत है और धार्मिक दृष्टिकोण से भी। और पूजापाठ की बात है तो इस व्‍यस्‍तम दौर में व्‍यक्ति को कोई ऐसा माध्‍यम तो मिल रहा है जिसमें वह ईस को याद कर लेता है।

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

आप की यह पोस्ट मीडिया नारद पर टिप्पणी के रूप में मौजूद है। वहाँ वहाँ शब्द पुष्टिकरण ने टिप्पणी से वंचित कर दिया।
आप ने सही कहा। आज टेलीविजन केवल व्यावसायिक हितों को समर्पित हो चुका है और सामाजिक हित तिरोहित हो गए हैं। मूल भारतीय हिन्दू धर्म, दर्शन और आध्यात्म को हिन्दुओं ने ही बत्ती दिखा दी है। आज वे जिस चीज की हिन्दू धर्म के नाम पर पैरवी कर रहे हैं उस से प्राचीन भारतीय धर्म,दर्शन और आध्यात्म को लाभ के स्थान पर हानि हो रही है। धर्म के नाम पर अंधविश्वासों की इस तरह पैरवी की जा रही है कि इस से ईश्वर को स्मरण करने का अवसर तो मिलता है। यानी ईश्वर को स्मरण करने के लिए भी अंधविश्वासों की जरूरत है और इस तरह वे ईश्वर को स्मरण करेंगे या फिर अपने काल्पनिक भयों से मुक्ति का उपक्रम करेंगे। इस तरह तो वे अपने इन काल्पनिक भयों में वृद्धि ही करेंगे।

ab inconvenienti ने कहा…

प्राचीन भारत में खोजे गए वैज्ञानिक, स्वस्थ्य सम्बन्धी और सामाजिक नियमों को सीधे सीधे जनता पर थोपा जाता तो ज्यादातर लोगों को बात समझ ही नहीं आती और शायद कईयों के गले से नीचे नहीं उतरती. इसीलिए इन नियमों को रीति रिवाज़, कर्मकांड, पाप-पुण्य की आड़ लेकर समाज के अन्तिम व्यक्ति तक पहुँचाया गया.

जैसे की एक उदहारण के तौर पर, गर्भवती महिला का सूर्यग्रहण की अवधी में खुले में आना महापाप मन गया है. ग्रहण के कारण पैदा होने वाली पराबैंगनी किरणें गर्भस्थ शिशु के नाज़ुक टिश्यूज को नुकसान पहुँचा सकती हैं. शिशु की सुरक्षा के लिए धर्म की आड़ में यह नियम बना दिया गया. आप जनसंख्या के सबसे पिछडे तबके तक अपनी बात विज्ञान के सिद्धांतों, सूत्रों के सीधे प्रयोग से नहीं पहुँचा सकते. वैसा ही एक नियम ग्रहण के दौरान भोजन को ढक कर रखने, ग्रहणकाल में उपवास रखने का है. ग्रहण के दौरान वातावरण में अल्ट्रा-वॉयलेट, एक्स-रेज़ की अधिकता हो जाती है, जो जैविक वस्तुओं में विकिरण (रेडियेशन) का स्तर बढ़ा सकतीं हैं. विकिरण से हो सकने वाली किसी भी दूरगामी हानि को टालने के लिए 'ग्रहण मोक्ष' के नियम बनाये गए.

हाँ, यह हो सकता है की कुछ नियम किसी एक काल की विशेष परिस्थिति के लिए ही बनाये गए हों, और उस समय उसकी उपयोगिता भी रही हो. पर उस काल, विशेष स्थिति के बीतने पर भी लोगों ने उस कर्मकांड को बिना जाने समझे जारी रखा हो.
कुछ धार्मिक मान्यताओं के मामले में ऐसा हो सकता है की साँप के भाग जाने पर पर भी हम सिर्फ़ लाठी से लकीर पीट रहे हों. पर इन मामलों में वैज्ञानिक समीक्षा की ज़रूरत है न की इसे अन्धविश्वास, या पागलपन घोषित करने की.

राज भाटिय़ा ने कहा…

सूर्या ग्रहण नंगी आंखो से देखना, हानि कारक होता हे यह सभी जानते हे, ओर हो सकता हे हमारे बुजुर्गो ने आम आदमी को इस हानि से बचाने के लिये ऎसा कह दिया हो, क्योकि सभी लोग सही ढगं से सही मन्त्रो का उचारण नही कर सकते, ओर वो इस डर से सूर्या ग्रहण से होने वाली हानि से बच जाते हो, य फ़िर हमारे पंडितो ने ही कुछ भ्रम फ़ेला दिये हो, ओर धीरे धीरे हम सही कारण को भुल कर सिर्फ़ अन्धविश्वास मे ही फ़स गये,क्यो कि पुराने समय मे कोई बात गलत नही थी उस समय के अनुसार,
लेकिन आप के दोस्त के मामले मे तो हम यही कहेगे की वह अन्धविश्वासी ही हे, धन्यवाद

Neeraj Rohilla ने कहा…

वाह टिप्पणियों में बात कहाँ से कहाँ पंहुच गयी :-)

वैसे मेरे नये रूममेट (वो चार दिन में घर छोड कर जा रहे हैं, दोनो के भले के लिये) ने मुझे सिखाया है कि समझदारी का पढाई लिखाई से सीधा सम्बन्ध होना कोई जरूरी नहीं है :-)