बचपन में पिताजी की अलमारी से निकाल कर किताबें पढने का शौक था। पुरानी-पुरानी किताबें पढ़कर बहुत अच्छा लगता था। एक किताब स्वामी दयानंद सरस्वती की भी पढ़ी। उसमें एक विवरण दिया गया था जिसमें शिवलिंग पर चढाये गए लड्डू को रात में एक चूहा खा रहा था। बात पते की थी - शिवजी की मूर्ति अपने लिंग पर रखे हुए एक लड्डू की रक्षा नहीं कर पाई तो हमारी क्या रक्षा करेगी? किताब में कहा गया कि आस्था भगवान में रखो, न कि मूर्तियों में। रास्ता धर्म का अपनाओ, न कि कर्मकांड का।
पाँच साल का था मैं, और तभी से मूर्तिपूजा करना छोड़ दिया। घरवालों के लाख कहने पर भी मन्दिर नहीं जाता था, क्योंकि मेरा दृढ़ विश्वास बन चुका था कि जब भगवान दिल में हो, तो मन्दिर मेरे अन्दर ही है - फिर ईंट-पत्थर से बने मंदिरों का क्या काम?
देखता हूँ कि जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ, मेरी यह धारणाएं कमज़ोर होने की बजाय और मज़बूत होती गयीं। खासतौर पर पिछले कुछ दिनों में कुछ बेचारे व्यक्ति मन्दिर में बनी मूर्ति को भगवान मानकर उसके दर्शन के चक्कर में मारे गए। भला यह भी कोई बात हुई? एक आदमी परिवार सहित खुशी-खुशी मन्दिर गया, भगदड़ मची, और उसके बीवी-बच्चे मारे गए। मन्दिर में ही श्मशान बन गया।
अगर पिछले कई सालों में भारत में मची भगदडोँ को देखा जाए तो लगता है कि भारत भगदडोँ का देश बन चुका है।
२५ जनवरी २००५ को महाराष्ट्र के मनधर देवी मन्दिर में आग लगने से भगदड़ मचने से ३०० लोग मारे गए थे। पिछले महीने नैना देवी मन्दिर में भगदड़ से १४० लोग मारे गए थे। और इस बार जोधपुर के चामुंडा देवी के मन्दिर में भगदड़ से २०० से भी अधिक लोग मारे गए हैं।
ऐसे मन्दिर किस काम के?
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गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008
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4 टिप्पणियां:
ठीक कहते हो. अगर विश्वास नहीं है तो जाना भी नहीं चाहिए. मैं तो जाता हूँ मंदिर, क्योंकि मुझे विश्वास है.
भगदड़ का तर्क समझ नहीं आया. ट्रेन दुर्घटनाएं देख कर क्या आप ट्रेन से सफ़र करना छोड़ दोगे?
आप के तर्कों से मैं सहमत नही हूँ ।
मैं मानता हूँ की सभी मंदिरों में एक सा माहौल नही होता परन्तु बहुत सी जगह (मदिरों)भगवान् की मोजूदगी को महसूस किया जा सकता है ।
वहीँ कई मन्दिर आप को आराम और सकून देते है .
जब आप जायेंगे ही नही तो आप को पता कैसे चलेगा।
और जहाँ तक भगद्ड की बात है आप समाधान बताये तो बेहतर है
आलोचना (जो हमारी पुरानी आदत है ) कुछ नही करती
परिस्थिति से डरने की बजाये उस से लड़ना ही एक सच्चे हिन्न्दोस्तानी की पहचान है
अनिल भाई बिल्कुल सही कहा आपने। चाहे कासी हो या काबा, ईश्वर अपने चाहने वालो पर अनेक बरसो से इसी तरह कहर बरपाता रहा है। लेकिन ये मुर्ख है कि ...
बहरहाल लोगो को समझाया जा सकना मुश्किल है, अब ये पिढी तो सुधरने से रही लेकिन इस नोटंकी में पढे लिखे नौजवान सबसे ज्यादा उमड रहे है सिर्फ यही दुर्भाग्यपूर्ण है। हमारे साफ्टेयर इंजीनियर परिचित अमेंरीका से लेकटाप लेकर आये, वे बडे गर्व से बताते है कि उन्होंने गणेश आरती की फ्लेश एनिमेंशन को र्स्टाटअप में डाल रखा है, जब भी कम्प्युटर र्स्टाट होगा 1 मिनट की आरती पहले होगी। वाह भई वाह क्या मुर्खता है।
दोस्तो धार्मिक स्थल पैसा कमाने का जरिया बन चुके है, तीज त्यौहारो के समय में जिस मंदिर में जितनी ज्यादा भीड जुटेगी उतना ही बडा मुनाफा भी होगा। सरकार को चाहिये की कोई कारगर निती बनाकर श्रंद्धालुवो की भीड को नियंत्रित किया जाये, नहीं तो एसे हादसे होते ही रहेंगे।
सामान्यत: ये देखा गया है कि धार्मिक स्थल अत्यंत तंग जगहो पर होते है जहा कम जगह में एक विशेष समय पर सभी श्रंद्धालुजन एक साथ पुण्य कमाने के फैर में एकत्र हो दर्शन करना चाहते है, पुण्य कमाने की होड में धक्का मुक्की, सफोकेशन हो जाता है व एक समय एसा आता है की ये भीड नियंत्रण के बाहर हो जाती है व कई लोग हलाक हो जाते है।
तीर स्नेह-विश्वास का चलायें,
नफरत-हिंसा को मार गिराएँ।
हर्ष-उमंग के फूटें पटाखे,
विजयादशमी कुछ इस तरह मनाएँ।
बुराई पर अच्छाई की विजय के पावन-पर्व पर हम सब मिल कर अपने भीतर के रावण को मार गिरायें और विजयादशमी को सार्थक बनाएं।
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