रविवार, 16 नवंबर 2008
जान गयी भाड़ में, पैसा ही जहान है
७ साल पहले एक "पढ़े-लिखे" मित्र ने कुछ ऐसा कहा था कि मन विचलित हो उठा था। आज आप सबसे बाँटना चाहूंगा।
मित्र: यार आज संडे है, चलो कहीं बाहर खाने चलते हैं।
मैं: नहीं यार, आज बहुत धूप है, बाहर जाने का मन नहीं है।
मित्र: तो चलो पिज्जा अॉर्डर कर लेते हैं।
मैं: कर तो लें, लेकिन भूख इतनी लगी है कि कम से कम २ पिज्जा खाने पड़ेंगे!
मित्र: कोई बात नहीं यार, सिर्फ ३५० रुपये ही लगेंगे ना! हफ्ते में एक बार तो खा ही सकते हैं।
मैं: चलो यार तुम इतना कह ही रहे हो तो खा लेते हैं।
दोनों मित्रों ने मोबाइल पर नंबर डायल किया, पिज्जा अॉर्डर किया, और आधे घंटे बाद पिज्जा आने पर जमकर खाया। उसपर जो बची-खुची कसर थी, वह कोका-कोला पीकर निकाल दी। उसके बाद हम दोनों सो गये।
अगले हफ्ते मेरा मित्र बीमार पड़ गया। पेट में दर्द और दस्त के मारे बुरा हाल। डॉक्टर के पास जाना पड़ा। चिकित्सक महोदय ने कागज़ के पुर्जे पर दो-ठौ दवाइयाँ लिख मारीं। मित्र और मैं साथ-साथ निकले दवाईयां खरीदने। केमिस्ट की दुकान पर पहुँचे।
मित्र: यार ये दवाईयाँ निकाल दो जल्दी से।
केमिस्ट दुकान के थोड़ा अंदर गया, अल्मारियाँ टटोलकर दवाईयां निकालीं, और वापस आकर कुर्सी पर बैठकर बिल बनाने लगा।
केमिस्ट: एक सौ पाँच रुपये हुऐ।
मित्र: यार बड़ी महँगी लगा रहे हो।
केमिस्ट: भैया इतने की ही है।
मित्र: इससे कोई सस्ती दवा नहीं है क्या?
केमिस्ट: है तो सही, लेकिन कोई गारंटी नहीं है कि असर करेगी या नहीं।
मित्र: सस्ती कितने की पड़ेगी?
केमिस्ट: पैंसठ रुपये की।
मित्र: वही दे दो यार।
मैं हक्का-बक्का रह गया! जो आदमी साढ़े तीन सौ रुपये का पिज्जा हर हफ्ते खा सकता है, उसे साल में १ बार सौ रुपये की दवा खरीदने में क्या दिक्कत है?
दिक्कत है भई! इस घटना के बाद मैंने और भी कई पढ़े-लिखे, अमीर शहरियों को बिलकुल ऐसा ही करते देखा।
क्या आज हमें पैसा जान से भी ज्यादा प्यारा हो गया है?
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
2 टिप्पणियां:
bahut sahi likha hai,insaan ki fitraat hi aisi hoti hai,khud ki jaan bhi pyari nahi,jaban ke chochle chalte hai.
क्या बात है!!
एक टिप्पणी भेजें