बुधवार, 10 दिसंबर 2008

कसब के नाम मेरी चिट्ठी



प्यारे कसब

कैसे हो? तुम्हें लग रहा होगा कि मैं तो तुम्हें जानता भी नहीं हूँ, फिर भी चिट्ठी क्यों लिख रहा हूँ. मैं तुम्हारा हमउम्र हूँ - मुझे तुम अपने दोस्त जैसा भी समझ सकते हो. मेरा और तुम्हारा इंसानियत का नाता है.

मैंने तुम्हारी तस्वीरें अखबार और टीवी पर कई बार देखी हैं. जब तुमने मीडिया चैनलों को फोन घुमाकर अपनी बात कहनी चाही थी, तो मैंने तुम्हारी गुस्सेभरी आवाज को टीवी पर सुना है . लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि तुम इंसानियत में यकीन रखते हो. पता नहीं किसी के बहकावे में आकर तुमने ऐसा गलत फैसला क्यों लिया. क्या तुम्हें पता है कि तुमने कितने निहत्थे मासूमों की जान ली है? हिंदुस्तान के एक हजार करोड लोग तुमसे इतनी नफरत करने लगे हैं कि अगर तुम कहीं गलती से दिख भी जाओ तो खैर नहीं होगी. उन यतीम हुये बच्चों और विधवा हुयी औरतों से पूछो कि तुमने उनसे क्या छीना है.

दिल में एक खयाल आता है कि तुमने यह सब क्यों किया?

क्या तुमने यह अपने धर्म की खातिर किया?
यदि ऐसा किया तो बिलकुल गलत किया, क्योंकि तुमने जिन लोगों को गोलियाँ मारी, क्या वो लोग खुदा ने नहीं बनाये थे? तुम फोन पर कह रहे थे कि तुमने मुसलमानों पर हो रहे जुल्म के खिलाफ यह कदम उठाया था. हकीकत यह है कि आज वही मुसलमान तुमपर थू-थू कर रहे हैं. यहाँ तक कि तुम्हारे मारे गये साथियों को दफनाने तक से इंकार कर चुके हैं.

क्या तुमने यह अपने देश की खातिर किया?
तुम्हारे देश के प्रेजिडेंट जरदारी ने कहा है कि तुम शक्ल से पाकिस्तानी नहीं लगते हो. डेढ सौ करोड पाकिस्तानियों का भी यही मानना है कि तुम पाकिस्तानी नहीं हो. जिस देश के लिये तुमने इतना बडा कदम उठाया, उस देश के लोगों ने ही तुम्हें पहचानने से इंकार कर दिया है. उनका कहना है कि तुम एक भटके हुये हिंदुस्तानी हो. ऐसी गुमनाम और अंधेरी शहादत किस काम की?

क्या तुमने यह कश्मीर के लिये किया?
याद रखना, खुदा ने इंसान को एक धरती बनाकर दी ताकि हम सब मिलकर रहें. उसने देश नहीं बनाये. लेकिन कुछ सिरफिरों ने दीवारें खींची और उन्हीं दीवारों को खडा रखने के लिये हमें आपस में लडवा रहे हैं. यदि तुम कश्मीर के लिये लड रहे हो तो तुम आदमी की खींची हुयी सिर्फ एक लकीर के लिये लड रहे हो. जमीन की एक लकीर के लिये कुर्बानी देते हुये तुम्हें कैसा लग रहा होगा?

क्या तुमने यह अपना नाम रौशन करने के लिये किया?
हकीकत तो यही रहेगी कि लोगों को तुम्हारा नाम तक ठीक से नहीं मालूम. देखो ना, तुम्हारा नाम तो अजमल है और दुनिया तुम्हें कसब-कसब कहे जा रही है. ऐसा नाम किस काम का?

चलो खैर बीत गयी सो बात गयी. तुम्हारे बारे में सुनने को मिल रहा है कि तुम्हें अब्बू-अम्मी की याद आ रही है. अगर कभी उनसे मिल सको तो उनसे अपने किये की माफी जरूर माँग लेना. सिर्फ वो ही हैं जो शायद तुम्हें मरने से पहले माफ करने की ताकत रखते हैं. कम से कम हलके होकर ऊपर जाओगे.

अगले जन्म में जब तुम फिर से इंसान बनकर आओगे, तो मेरी खुदा से सिर्फ एक ही दुआ रहेगी - कि तुम्हें गरीब ना बनाये, ताकि तुम्हारे माँ-बाप तुम्हारी देखरेख कर सकें, और तुम पढ-लिखकर इतने समझदार बन जाओ कि कभी किसी के झूठे बहलावे में आकर लोगों का कत्ल करने की न सोचो.

बस इतना ही कहना था.

खुदा हाफिज.

8 टिप्‍पणियां:

ghughutibasuti ने कहा…

क्या कहूँ ? मुझे यदि यह व्यक्ति मिले तो पता नहीं, उस पर दया आएगी, गुस्सा या फिर कुछ और ।
घुघूती बासूती

रवीन्द्र प्रभात ने कहा…

सुंदर अभिव्यक्ति , कसब के नाम आपकी चट्ठी अदभुत है !

बेनामी ने कहा…

पता नहीं कितने कसब और है... ये चिट्ठी दुसरे कसबों के काम आयेगी..

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } ने कहा…

कसब अगर तुम गोली चलाने से पहले अपनी माँ को याद करते तो शायद गोली नहीं चला पाते .
अच्छा लिखा आपने

बेनामी ने कहा…

पकडे गै तो कीसी ने बहका दिया? और नही पकडे जाते तो पाकिस्तान मे जा कर कहते की मै बहुत बहादूर हूं।

विधुल्लता ने कहा…

kasab ko maaphi shaayad uski ammi bhi nahi degi,blog par swaagat hai,

कुश ने कहा…

भगवान ना करे अगर मुंबई हादसे में आपका कोई करीबी भी दुर्घटनाग्रस्त हो जाता.. तब भी क्या आप इस कसाब को चिट्ठी लिखते.. ??

अनॉनीमस बंधु ने बिल्कुल ठीक कहा है.. पकड़ा गया तो बहका दिया है.. अब्बू अम्मी अब याद आ रहे.. कितने ही लोगो को अनाथ करके.. ऐसे लोगो को चिट्ठिया नही लिखी जाति.. ना ही समझाया जाता है.. भैंस के आगे बिन बजाना शायद इसी को कहते है..

मैं आपकी भावनाओ का सम्मान करता हू.. और आपकी सोच पर कतई उंगली नही उठा रहा हू.. मासूम लोगो को मरते देखा है.. इतनी आसानी से माफ़ नही करूँगा इन लोगो को.. अगर बद्दुआ का असर होता है.. और नर्क नाम की कोई जगह होती है.. तो इनका हाल वाहा पर बहुत बुरा होने वाला है.. शायद इतना बद्तर की दोबारा धरती पर जन्म लेने से पहले इनकी रूह काँप उठे

शोभित जैन ने कहा…

अनिल भाई,
पूरी पोस्ट पढ़ी और सारे कमेंट्स भी (लोगों में बहुत गुस्सा है और जायज है) ||
पर मुझे लगता है आपका ये पत्र उन सभी भटके हुए नौजवानों को एक नई सोच के लिए विवश करने के लिए काफी लिए है जो कल के 'कसब' हैं.....
यही सोच यदि ज़ोर शोर से प्रचारित की जाए तो आतंक के बढ़ते हुए ग्राफ को नीचे लाया जा सकता है ||
साधुवाद.....