बहुत दिनों से कुछ "दो टूक" नहीं लिखा तो चलिये आज लिख डालता हूं - कृपया "लाइटली" लें!
स्लमडॉग करोड़पति का चलचित्र मैंने दो हफ्ते पहले देखा और कई दिनों तक सोचता रहा कि जो मुझे दिखाई दिया वह किसी और को भी दिखाई दे रहा है क्या?
व्यापारी बनकर आये अंग्रेजों ने भारत जैसे महान देश को कैसे लूटा, और जाते-जाते कई टुकडों में कैसे तोड़ा यह किसी से छुपा नहीं है. इन सब करतूतों के बाद आज भी उनमें अपनी गोरी चमड़ी का गुमान है. यह बात कई जगह दिखाई देती है - फिर चाहे वह नोबेल पुरस्कार देने की बात हो या ऑस्कर पुरस्कार की - ईनाम उसी को मिलेगा जिसकी चमड़ी गोरी है.
लेकिन अब ये गोरी चमड़ी वाले लोग पहले से भी अधिक "स्मार्ट" हो गये हैं. आर्थिक मंदी के कारण ये सिर्फ वह ही काम करना चाहते हैं जिसमें फायदा हो. इसीलिये इन्होनें स्लमडॉग करोड़पति फिल्म बनायी. भारतीय द्वारा लिखे गये भारत में प्रकाशित हुये भारतीय उपन्यास के आधार पर भारत में आकर भारत के लोगों को लेकर चलचित्र बनाया - और यहां तक कि पात्रों से हिंदी भी बुलवायी. फिर उसी चलचित्र को भारत में ही बेचकर पैसे भी कमा रहे हैं.
चलचित्र में भारत की गरीबी को जी-भरके बेचा गया, गंदगी दिखलाई गयी, आर्थिक और सामाजिक विषमताओं को उजागर किया गया. मैं मानता हूं कि काफी हद तक सच दिखलाया गया - लेकिन यदि एक भारतीय ऐसा करे तो मुझे बर्दाश्त है - लेकिन एक विदेशी की बनायी हुयी फिल्म में ऐसा दिखाना ठीक नहीं था.
यदि इस फिल्म को ऑस्कर पुरस्कार मिलता है तो वह फिल्म की गुणवत्ता के लिये नहीं बल्कि बनाने वाले की गोरी चमड़ी के लिये और हिंदुस्तान की गरीबी और गंदगी दिखाने के लिये मिलेगा.
मैं स्लमडॉग करोडपति को औस्कर पुरस्कार दिये जाने के समर्थन में नहीं हूं.
3 टिप्पणियां:
बिल्कुल सही कहा है ।
ठीक कह रहे हो.....
बर्दाश्त तो हमें भी नहीं। पर हम तो आईना देख कर भी अपने नंगेपन को दूर करने को तैयार नहीं हैं।
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