मेरा यह मानना है कि परीक्षा ज्ञान को परखने के लिये होती है। मेरा उत्तर सही था, लेकिन फिर भी मुझे असफल घोषित किया गया था। तो मैं अपने गणित के अध्यापक से बात करने जा पहुँचा। जवाब में मुझे मिली पूरी कक्षा के सामने बेंत, थप्पड़ और लातों से आधे घंटे तक पिटाई। दक्षिण दिल्ली के एक प्रतिष्ठित स्कूल की बात कर रहा हूँ, न कि दूर-दराज के किसी गाँव की। खैर मेरी गति शन्नो जैसी न हुई, उस निर्मम पिटाई के बाद भी मैं जिंदा बच गया।
जो कुछ हुआ, उससे मेरा बाल मन बहुत विचलित था। मेरे सामने दो विकल्प थे। या तो "चलता है यार" कहकर भूल जाता, या फिर अपने छोटे से स्वाभिमान को बलशाली करने के लिये और अधिक मेहनत करता। उस संकटपूर्ण समय में मैंने कई दिन सोचने-समझने में लगाये, और इस दोहे को अपना लक्ष्य बनाया:
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान ।
रसुरी आवत-जात ते सिल पर परत निसान ।।
रसुरी आवत-जात ते सिल पर परत निसान ।।
मैंने हताश होने की बजाय खूब जोर-शोर से पढ़ाई शुरू की, दिन-रात एक कर दिया। पढ़ाई को बोझ या कर्तव्य न समझते हुए उसमें रुचि लेनी शुरू की। जहाँ गणित में मैं असफल हो रहा था, वहीं उसी विषय में सर्वाधिक अंक लाकर कक्षा में प्रथम घोषित किया गया। अगले साल मैं पूरे स्कूल में प्रथम आया। और दसवीं कक्षा में पूरी दक्षिण दिल्ली में प्रथम आया।
जिन अध्यापक महोदय ने मुझे पीटा था, उन्हें मैं आज भी याद करता हूँ। उन्होंने स्कूल के वातावरण में अपने आप को सुरक्षित मानकर एक बच्चे को पीटा था, लेकिन मैंने अपने अथक प्रयासों से उन्हें वाकई गलत ठहराया। दो पंक्ति के उस दोहे ने मेरा जीवन बदल दिया।
मैं ऐसा कर सकता हूँ तो आप भी कर सकते हैं। हमेशा अथक प्रयास करें, कभी पीछे न हटें। अपने आप पर भरोसा रखें, अपने अधिकारों और सत्य के लिये लड़ते रहें। जीत आप ही की होगी।
इसी मौके पर द्वारिका प्रसाद महेश्वरी की इस कविता पर भी मुलाहिजा फरमायें:
वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !
हाथ में ध्वजा रहे, बाल दल सजा रहे
ध्वज कभी झुके नहीं, दल कभी रुके नहीं
वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !
सामने पहाड़ हो, सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर डरो नहीं, तुम निडर डटो वहीं
वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !
प्रात हो कि रात हो, संग हो न साथ हो
सूर्य से बढ़े चलो, चन्द्र से बढ़े चलो
वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !
एक ध्वज लिये हुए, एक प्रण किये हुए
मातृ भूमि के लिये, पितृ भूमि के लिये
वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !
अन्न भूमि में भरा, वारि भूमि में भरा
यत्न कर निकाल लो, रत्न भर निकाल लो
वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !
17 टिप्पणियां:
बहुत बडिया व्यक्तित्व विकास के लिये सकारात्मक दो शब्द ही चमत्कार करते हैं ये दोहे और लोकोक्तियां इनकी एक एक शब्द मे पूरे जीवन का नि्चोड हैं प्रेरक प्रसंग स्कारात्मक साहित्य मार्गदर्शक हैांइसे प्रेरक प्रसंगों को बार बार लिखना समझो किसी और को प्रेरणा देना है अभार्
वाह बहुत प्रेरक ,काश मैं भी आप सरीखा अनुभव लाभ का भागी हुआ होता तो गणित सुधर गयी होती !
असफलता ही सफलता के लिए मार्ग प्रशस्त करती है।
पिटाई तो हमारी भी खूब हुई दोस्त मगर अफ़सोस हम आप जैसे न बन सके।प्रेरक प्रसंग है।
अपने अनुभवों से सीखना पत्थर की लकीर होता है . दोहे में सिर की जगह सिल कर लीजिये
सिन्हा जी त्रुटि सुधार ली गयी है। चेताने के लिये सहस्र-धन्यवाद!
भाई हमारी तो गणित के मास्स्साब ने खूब तबियत से ठूकाई की पर हम नही सुधरे अलबत्ता वो मास्साब ही सुधर गये.
रामराम.
सच में हिन्दी के अधिकतर दोहे अत्यन्त उपदेशात्मक हैं!
वो गधे मास्टर लोग, जिन्हें पढ़ाना नहीं आता...पिटाई में अटूट आस्था रखते हैं.
बहुत अच्छी पोस्ट लिखी है आपने। कभी-कभी कुछ नकारात्मक चीजें व्यक्ति को सकारात्मकता की तरफ मोड़ देती हैं। ऐसा ही मेरे बेटे के साथ हुआ। अकाउंट में वह तिमाही परीक्षा में फेल हो गया। उसे फेल होने पर अफसोस कम और मास्टर जी पर गुस्सा ज्यादा था। उसका कहना था कि वह फेल तो हो ही नहीं सकता। उसकी जिद पर मैं स्कूल प्रबंधन से मिला और उसकी कॉपी दिखाने का आग्रह किया। जब मैने उत्तर पुस्तिका देखी तो बेटे की बात सही थी। मैने स्कूल प्रबंधन से शिकायत की कि ऐसा सिर्फ ट्यूशन के लिए दबाव बनाने के लिए किया गया है लेकिन मैने बेटे को लौटकर कहा कि बेटा तुम पास तो हो जाते लेकिन इतने नंबर आते कि मुझे उससे अच्छा तुम्हारा फेल होना लग रहा है।..उसके अकाउंट टीचर का कहना था कि अकाउंट उसके बस का नहीं है और टीचर उसे रोज क्लास में खड़ा कर कहता...फिर क्या था। बेटा जुट गया और बोला कि अब मैं भाटिया सर को ही दिखाउंगा कि मेरे बस में क्या है। प्रीबोर्ड में उसकी क्लास में फर्स्ट पोजीशन आई और अब बोर्ड के रिजल्ट का इंतजार है।
आखिर जो कविता लिखी है वह मै और मेरी बिटिया साथ साथ पढ्ते है हमे बहुत मजा आता है । आपका यह लेख बहुत प्रेरणा दायक है ।
किसी भी बात को कहानी के रूप में बना कर पेश करना कोई आप ही से सीखे! बहुत ठीक कहा.
बहुत खूब। मजा आ गया पढकर।
वैसे, कुछ नाराजगी है क्या?
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S.B.A.
TSALIIM.
तस्लीम जी, नाराजगी किस बात की? मन में कुछ ख्यालात आते हैं जिन्हें ब्लाग पर उतारकर बाकी सबके सामने रखता हूँ। सोचता हूँ कि इसी बहाने कुछ दोस्त मिल जायेंगे, या फिर किसी का हौसला बढ़ जायेगा। हाँ मेरी छवि थोड़ी बहुत "angry young man" वाली है, शायद इसीलिये आपको ऐसा लगा होगा।
बंधू , कविता पढ़ कर तन-मन हरा हो गया
धन्यवाद्
प्रेरक प्रसंग है| आपके केसा में कथा सुखांत हो गयी लेकिन कित्न्ने ही दूसरे किस्से ... हिंसक मास्टरों ने देश का बहुत अहित किया है|
आपके उस छोटी आयु मेँ दृढ इच्छा शक्ति और मनोबल को प्रणाम!! दोहा तो मात्र निमित था आपकी आंतरिक मनोशक्ति को प्रबल बनाने के लिए.
बाकि अकारण दँड से बच्चे विषाद ग्रस्त हो जाते है, या तो बदले की भावना से भर जाते है या निराश हो पलायन कर जाते है. यह छोटी सी घट्ना आपके जीवन को सार्थक मार्ग दे गई अन्यथा ऐसी ही घटनाएँ जीवन बर्बाद करने के लिए भी पर्याप्त होती है.
आपकी सफलता का श्रेय आपके मनोबल और सही समय पर सही दिशा मेँ सूझ को जाता है.
इस प्रेरक प्रसँग को साझा करने के लिए बहुत बहुत आभार!!
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