शुक्रवार, 12 जून 2015

नीति या नेता?



मेरे दो दोस्त हैं। दोनों बचपन से साथ एक साथ पढ़े हैं, एक साथ खेले हैं, और हमेशा दोस्ती निभाई है। लेकिन पिछले साल दोनों की बेमिसाल दोस्ती टूट गयी।

भला कैसे?

चुनाव का वक्त था। एक दोस्त नरेंद्र मोदी को पसंद करता था और एक अरविंद केजरीवाल को। दोनों को चुनावी बुखार चढ़ा और एक दूसरे से कतराने लगे। बात यहाँ तक बढ़ गई कि दोनों ने एक दूसरे से बात करना भी बंद कर दिया। जो दोस्त रोज एक साथ खाते पीते थे बैठे थे अब उन्हें एक दूसरे को देखना भी पसंद नहीं रहा।

जैसे-जैसे चुनाव का समय पास आता गया वैसे-वैसे इनकी दोस्ती पहले उदासीनता मेँ बदली और अंतत: दुश्मनी में। एक दिन तो चाय की दुकान पर इन दोनो का झगड़ा भी हुआ। गनीमत थी कि आसपास खड़े कुछ लोगों ने झगड़ा किसी तरह से छुड़वाया।

कृष्ण-सुदामा की ये जोड़ी राजनैतिक अंदभक्ति ने लील ली।

दोस्तों, राजनीति के बारे में सोचना और बहस करना अच्छी बात है। मैं तो कहता हूँ हर जागरूक नागरिक का फ़र्ज़ भी है। लेकिन जब आदमी नीति को छोड़ कर नैतिकों का साथ देने लगता है तब इस अंधभक्ति की शुरुआत होती है।

Discuss politics, not politicians.

भारत के सारे राजनेता एक जैसे ही हैं। ये सभी नेता लोग कैंटीन में एक ही साथ बैठकर खाते हैं। इनके भोज इत्यादि में सभी पार्टियों के नेता आमंत्रित होते हैं जहां ये सभी एक साथ ठहाके लगाते हैं और मिलकर दारू पीते हैं।

जब कभी आप पर मुसीबत आ पड़ेगी तो आपका पूज्य नेता आपकी मदद नहीं करने आएगा। उसे तो पता भी नहीं होगा कि आप कौन हैं। आपके दोस्त शायद तब भी किसी काम आ जाएँ। और कुछ नहीं तो कंधे पर हाथ राखकर आपका ढाढस ही बंधा दें।

गुज़ारिश है कि नेताओं के चक्कर में आकर अपने दोस्तों को न दुत्कारें। जिनसे राजनैतिक मुद्दों पर सहमति न भी हो, उनसे बाकी सब मुद्दों पर सहमति ढूँढने का प्रयास करें। इसी में चरित्र की परिपक्वता है।

इंसान की इंसानियत को समझना हर मानव का सर्वोपरि धर्म है।

1 टिप्पणी:

Anil Sahu ने कहा…

आपका ब्लॉग देखा. पसंद आया.