एक बार कुछ मेंढकों ने एक बहुत ऊँचे पहाड़ पर चढ़ने की एक प्रतियोगिता रखी। हजारों मेंढक पहाड़ तले जमा हो गए इस प्रतियोगिता को देखने। सैकडों मेंढक भाग ले रहे थे, हरेक का सपना था कि सबसे पहले पहाड़ पर चढ़कर वाहवाही बटोरे। रेफरी मेंढक ने ज़ोर से "टर्र" की आवाज़ की और दौड़ शुरू!
उत्साह भरे सभी प्रतियोगी मेंढक ज़ोर ज़ोर से फुदक-फुदक कर पहाड़ की तरफ़ बढ़ने लगे। करीब १०० मीटर ही चले होंगे की २-३ कमज़ोर मेंढक लुढ़क गए। कुछ दूर और आगे जाकर गरमी की वजह से कुछ और मेंढक पस्त हो गए। दर्शक मेंढकों का उत्साह टूटने लगा, और वे कहने लगे कि अब नहीं हो पायेगा। बहुत मुश्किल है। भीड़ की निराशाजनक बातें सुनते ही कुछ और मेंढकों को अपनी टाँगों की दुखन महसूस होने लगी, और वो भी रुक गए।
अभी आधा रास्ता भी नहीं हुआ था लेकिन आधे से भी अधिक मेंढक दौड़ से बाहर हो चुके थे। दर्शकों ने अपने अपने घर वापस जाना शुरू कर दिया था, और जो खड़े होकर दौड़ देख भी रहे थे, वे सब निराशाजनक टिप्पणियां कर रहे थे -
"नहीं कर पाएंगे"
"हम तो मेंढक हैं, भला पहाड़ पर कैसे चढेंगे?"
"मूर्खतापूर्ण कार्य है"
"ये दौड़ नहीं प्रताड़ना है"
"अब हम मेंढकों का तो भगवान भी भला नहीं कर सकता"
यह सब सुनकर एक-एक करके बचे-खुचे मेंढक भी दौड़ से बाहर हो गए।
लेकिन एक मेंढक बड़ी तेज़ी से बढ़ा जा रहा था। देखने वाले आश्चर्यचकित तो थे, लेकिन फिर भी उसे गालियाँ दे रहे थे
"साला मेंढक अपने आपको घोड़ा समझ रहा है"
"बड़ा बनता है अपने आपको"
"दौड़ पूरी करके दिखाए तो जानें"
लेकिन वह आखिरी मेंढक बिल्कुल नहीं रुका। लक्ष्य की ओर बढ़ता ही चला जा रहा था। दर्शक सारे स्तब्ध! कि जो काम दिग्गज मेंढक नहीं कर पा रहे, वह काम ये छोटा सा नया मेंढक कैसे कर पायेगा? सभी मेंढक टकटकी लगाये उस अकेले मेंढक की ओर देखने लगे। वह आखिरी धावक अपने लक्ष्य की तरफ़ बढ़ता चला गया, और कुछ ही देर में पहाड़ की चोटी पर जा पहुँचा।
उसका पीछा करते-करते बचे-खुचे दर्शक भी पहाड़ की चोटी पर पहुंचे और उससे उसकी सफलता का राज़ पूछा। लेकिन विजेता मेंढक कुछ बोल नहीं पाया, क्योंकि वह जन्म से ही गूंगा-बहरा था। उसने न किसी की निराशाजनक प्रतिक्रिया सुनी, और न ही उन निराशाजनक प्रतिक्रियाओं पर टिप्पणी की। उसने सिर्फ़ अपने लक्ष्य पर ध्यान दिया, और विजेता बना।
दूसरों की कही निराशाजनक बातों पर ध्यान न देते हुए सिर्फ़ अपने लक्ष्य पर ध्यान रखें, सफलता आपकी अवश्य होगी!
एक अकेला चना जिसने भाड़ फोड़ा: भाग १ | भाग २| भाग ३| भाग 4
6 टिप्पणियां:
sahi kaha hai....
essa hi hota h ai
धन्यवाद
धन्यवाद
प्रेरक प्रसंग-
खासकर सभी चिट्ठाकारों के लिए विशेष. :)
आप व्यक्ति को समूह से ज्यादा मूल्यवान बताते हैं...मगर आप खुद देख लीजिये आपके व्यक्ति को कितना बलिदान देना पड़ता है ..जैसे ये मेढक भी गूंगा-बहरा था . अब भला जिस मेढक के पास के पास मुंह और कान सलामत हो वो तो चना नहीं फोड़ सकता है .कुछ ऐसा कहते कि मुंह-कान भी रहता और चना भी फोड़ डालता और मुंह-कान तब भी बचा रहता, तो शायद मेरे हिसाब से ज्यादा प्रभावकारी होता .
यह सभी जानते हैं कि समूह अकेले से कहीं अधिक बलवान होता है। लेकिन कलियुग की अंधी दौड़ के चलते व्यक्ति का एक-दूसरे से विश्वास उठता जा रहा है, जिस वजह से हम सब जो कभी "समूह" रहा करते थे, मात्र अकेले व्यक्ति बन कर रह गये हैं। बम धमाकों के समय यही लग रहा था कि अपनी रक्षा जो खुद करेगा, वही कल का सूरज देखेगा। मैं बार-बार कहानियों के ज़रिये यह बताना चाहता हूं कि यदि समूह ने काम करना बंद कर दिया है तो घबराने की कोई बात नहीं है। अकेला आदमी भी अपने आप को सशक्त बना सकता है, फिर समूह का पुनर्निर्माण भी किया जा सकता है। गौर देने की बात है कि यह समूह समाज हो सकता है, देश भी, और हमारी प्यारी-अप्यारी भारत-सरकार भी।
कुल मिलाकर, मैं बार-बार सिर्फ यह कहना चाहता हूं कि इस अंधी दौड़ में शामिल न होकर सिर्फ वही करें जो आपको सिखाये संस्कारों और नैतिकताओं की दृष्टि में सही हो। फिर चाहे अकेले ही क्यों न हों। गीतोपदेश का सारांश भी यही कहता है - (सु)कर्म करो, फल की चिंता मत करो।
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