चिट्ठे की शुरुआत से पहले नारियल जो फोड़ा
शुभ उम्मीदों की आशाओं ने आकर हमको घेरा
शोहरत की उम्मीदों ने, ऐसी लगायी आग
चिपक गए कंप्यूटर से हम, लिए दुनिया से भाग
चिट्ठाकारी का आन्दोलन, जबसे हमने छेड़ा
तब से बिल्कुल गर्क हो चला, अपना तो भई बेड़ा
न नाश्ते में रोटी खाएं, न ही लंच में थाली
खाते तो हम दस बखत, बस एक चाय की प्याली
सर पे चढ़ के बोला ऐसे चिट्ठाकारी का नशा
हम भी सोचते रह गए मैं भी कैसा फंसा
शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008
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4 टिप्पणियां:
बिल्कुल सही लिखा है....;सबकी एक ही हालत है।
अनिल जी,
जब ओखली में सर दे ही दिया है तो ---------
अब तो फंस ही गये हो..अब निजात मिलना मुश्किल है. :)
bhagvaan se prarthna!!!
danadan moosal paden!!!
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