शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

प्रेम की आहुति

नौ साल पहले मोबाइल पर किसी का SMS आया था। एक नये दौर की कविता थी, इतनी महत्त्वपूर्ण लगी कि आज तक सहेज कर रखी हुयी है। मुलाहिजा फरमायें:

कृष्णा और हम

कृष्णा करे तो रासलीला ,
हम करे तो कैरेक्टर ढीला!
कृष्णा में दीखते विष्णु और ब्रह्मा ,
हम में जग का सबसे निकम्मा!

कृष्णा गोपियों के वस्त्र चुराते ,
हम तो केवल दूर से ताकते ,
फिर भी कृष्णा के भजन तुम गाते ,
और हमको ताने आते -जाते!

कृष्णा की हजारों गोपियाँ ,
हम तो चाहे एक ही सीता!
फिर भी कृष्णा की पढ़ते तुम गीता ,
और हमको कहते तो नासपीटा!

कृष्णा ने राधा से की बेवफाई ,
फिर भी कहा न उनको हरजाई!
हमने कभी न छोड़ा तुम्हारा दुपट्टा ,
फिर भी कहती हो उल्लू का पठ्ठा!

पहले तो पढ़कर बहुत हँसी आयी, लेकिन दो मिनट बाद बोध हुआ कि यह एक हलका-फुलका SMS नहीं, आजकल की भारतीय संस्कृति का यथार्थ है।

एक दोस्त की कहानी बताता हूँ जिसे मैं पच्चीस साल से जानता हूँ - हम बचपन के दोस्त हैं। दो साल पहले वह अचानक गायब हो गया, मैंने उसे हजारों फोन किये, ईमेल किया, लेकिन कोई जवाब नहीं आया। आज उसका फोन अचानक मिल गया। वही हुआ जिसका मुझे डर था।

मेरे दोस्त को एक लड़की से प्यार हो गया था। वे एक दूसरे को पाँच साल से जानते थे। लेकिन दोनों के घरवालों की नजर में प्रेम करना बुरी चीज है। लोग क्या कहेंगे, "जी आपका बेटा इश्क लड़ा रहा है, आपकी बेटी फलाने के साथ गुलछर्रे उड़ा रही है।" दोनों का धर्म, जाति, आर्थिक स्थिति बिलकुल मेलजोल की थी, लेकिन फिर भी समाज के डर से दोनों की शादी नहीं होने दी गयी। अब मेरा दोस्त जिंदगी की जद्दोजहद में बहकर अपने टूटे हुये दिल के दर्द को घोलने की कोशिश कर रहा है। और नारी सशक्तीकरण के इस दौर में भी वह लड़की अपनी घुटन पर जीत अर्जित करने में असक्षम है।

आज से ठीक दो महीने बाद उसी लड़की की किसी और से शादी होने जा रही है। मेरे दोस्त का घर उस लड़की के घर के पास ही है। इसलिये "शिष्टता" के नाते मेरे दोस्त को अपनी ही प्रेमिका की शादी का न्यौता आया है! यदा-कदा ऐसी घटनायें फिल्मों में देखता था, आज मेरे सबसे प्यारे दोस्त के साथ ही घट गयी!

हम रोज़मर्रा की जिंदगी में बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। कभी लोकतंत्र तो कभी भ्रष्टाचार - हर मामले पर हमारी "प्रबुद्ध" राय तैयार रहती है। लेकिन खुद अपने जीवन में हम ईमानदारी और प्रबुद्धता उतारने को राजी नहीं। हम सबको कहते हैं कि "आपका वोट महत्त्वपूर्ण है, सोच-समझकर फैसला लें"। लेकिन फिर उसी मतदाता को अपने ही जीवन के महत्त्वपूर्ण फैसले लेने से रोक देते हैं। जो अपने निजी जीवन के फैसले अपनी पसंद के मुताबिक नहीं ले पा रहा, उससे राष्ट्रनिर्माण के फैसले कैसे लिवायेंगे?

फिल्मों में नायक-नायिका के प्रेम की वाहवाही करने वाले अपने ही घर की प्रेम कथाओं का गला क्यों घोंटते हैं? मंदिरों में राधा-कृष्ण के प्रेम की पूजा करने वाले अपने ही घर में पल रहे प्रेम को क्यों दुत्कारते हैं? राधा-कृष्ण को पूजने वाले देश में प्रेमियों को सरेआम फाँसी क्यों दी जाती है?

मेरे दोस्त ने बचपन से अभी तक बहुत से अच्छे काम किये हैं। अपने मोहल्ले में पानी का नल भी उसी ने लगवाया था, कई गरीब बच्चों को मुफ्त में ट्यूशन देकर नौकरी पाने लायक बनाया था, मंदिरों में श्रमदान किया था। समाज ने उसकी कभी तारीफ नहीं की। लेकिन आज जब वह अपनी जिंदगी का एक फैसला खुद लेना चाहता है, तो वही समाज उसके रास्ते में रोड़ा बनकर खड़ा हो गया है।

हमें चाहिये कि युवाओं के फैसलों का आदर करना सीखें, चाहे वह उनके व्यक्तिगत मामले हों या फिर देश को बनाने की बातें। युवाओं की अपार ऊर्जा को ठीक गति दी जायेगी तभी देश का कुछ हो पायेगा, नहीं तो विरोधाभास चल ही रहा है, आगे भी विरोधाभास ही चलता रहेगा।

याद रखें, हर लड़के में कृष्ण हो सकता है, और हर लड़की में राधा।

(यदि पढ़ने का और मन है तो यहाँ भी निगाह डाल सकते हैं।)

7 टिप्‍पणियां:

Arvind Mishra ने कहा…

श्रेष्ठ समकालीन चिंतन !

डॉ महेश सिन्हा ने कहा…

abhi bhi samay hai aapke mitra ke paas thodi himmat jutayen apne ghar aur pehchan walon ke saath

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत बढिया और उपयुक्त चिंतन लगा.

रामराम.

Anil Kumar ने कहा…

महेश सिन्हा जी, अब तो शादी के कार्ड बँट चुके हैं, और दोनों की बातचीत भी बंद हो चुकी है। अब मेरे दोस्त ने एक अॉफिस खोलकर अपनी जीविका के लिये प्रयास करने शुरू किये हैं। घर में वह सिर्फ सोने जाता है, बाकी सारा दिन अॉफिस में व्यस्त रहने की "कोशिश" करता है। उसके माता-पिता न खुश हैं न दुखी। बहुत ही अजीब-सी पारिवारिक स्थिति उत्पन्न हुयी है जिसका किसी के पास कोई जवाब नहीं है। जिस समाज के डर से उसका विवाह न हो सका वही समाज इस दयनीय स्थिति पर चुप्पी साधे बैठा है।

सतीश पंचम ने कहा…

अफसोस। वैसे अमरकान्त जी का लिखा एक 'सूखा पत्ता' नामक उपन्यास है । ठीक इसी मनस्थिति का वर्णन है। सदाचार और उच्च नैतिकता वाला युवक इस कारण अपनी प्रेमिका को छोड देता है क्योंकि यदि वह उस दूसरी जाति के लडकी से विवाह कर लेगा तो उस लडकी की बाकी की दो छोटी बहनों की शादी में मुश्किल होगी। न जाने कितने साल उन छोटी बहनों को बडी बहन के प्यार की कीमत चुकानी पडे । समाज अभी इतना सबल नहीं हुआ कि उन दोनों छोटी बहनों की जिंदगी भी संवार दे।
अमरकान्त जी की लिखी इस 'सूखा पत्ता' की याद दिला दी आपके इस पोस्ट नें।

naresh singh ने कहा…

बहुत ही नेक और उच्च विचार है आपके ।

डॉ महेश सिन्हा ने कहा…

this happens only in India