कुछ साल पहले तक मैं भारत के दो प्रमुख अखबार रोज़ाना पढ़ता था। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, अखबारों की भाषा बदलने लगी। थाली के बैंगन की तरह अखबारों की खबरें इधर-उधर लुढ़कने लगीं। कोई दायीं ओर, कोई बांयी ओर, कोई तीसरी ओर। और जब से न्यूज चैनल कुकुतमुत्तों की तरह उगने शुरू हुये, तो पत्रकारिता की मौत का रास्ता प्रशस्त होता दिखा।
मैं पत्रकारिता के इस अकस्मात् बदले स्वरूप से इतना खीझ उठा कि अखबार पढ़ने ही बंद कर दिये। अब ऐसी खबरें पढ़कर करना भी क्या है?
लेकिन अंदर एक जिम्मेदार नागरिक की आत्मा भरी गयी है। सातवीं कक्षा की सामाजिक ज्ञान की पुस्तक में लिखा था कि सही जानकारी के आधार पर ही सही लोकतंत्र का चुनाव होता है। कहीं न कहीं से तो वह आत्मा बोलेगी ही। लाख मारने की कोशिश की, लेकिन खबरों की यह भूख कभी न कभी लग ही जाती है। कभी खबरों की रोटी खाता हूँ, तो कभी खबरों के मसालेदार गोलगप्पे। खबरें पाने लिये हमारे चिट्ठाकार बंधु-भगिनियाँ ही अच्छे! खबर को फाँसी पर वे भी चढ़ाते हैं, लेकिन पढ़कर कमसकम पता तो चल जाता है कि आखिर फलानी खबर को फाँसी क्यों दी गयी।
ऐसे में यदि कोई कहता है कि "मुझे नहीं बनना टीवी पत्रकार", तो मैं उसकी पीड़ा समझ सकता हूँ।
क्या आप पत्रकार हैं? मेरे विचार पढ़कर मुझे जूता मारना चाहते हैं?
मारिये, मारिये।
लेकिन पहले बरतानिया का यह वाकया सुन लीजिये।
एक बंदे ने दूसरे को गाली दी। पत्रकार होते ही "सबसे तेज" हैं, सो वहाँ पहुंच गये। उस गाली की फोन-रिकार्डिंग का ऐकाधिकार पता नहीं कितने पैसों में खरीदा। फिर वही गालियाँ दुनिया के सामने खबर बनाकर परोस दी गयीं। टी आर पी खूब बढ़ा, किसी को सुध नहीं पड़ी कि क्या घटा।
लेकिन एक विकसित देश का मामला था। लोगों को भूख मिटाने और धर्म के नाम पर एक-दूसरे का खून पीने के अलावा भी और काम हैं। सो जनता ने मामला उठाया, संचार नियंत्रक संस्था तक लाया गया। फैसला हुआ कि पत्रकारों ने गलती की थी। न्यूज चैनल को ऐसी भद्दी खबरें नहीं छापनी चाहिये थीं। यह उनकी सभ्यता और आचार संहिता का उल्लंघन था।
उसी न्यूज चैनल ने अपने आपको दंडित होने की खबर छापी है। निष्पक्षता के साथ। "उसी चैनल ने"।
माना कि इस वाकये में बहुत विवाद खड़े किये जा सकते हैं। लेकिन बस यही पूछना चाहता हूँ, कभी दिखा सकते हो इतनी निष्पक्ष पत्रकारिता, कि अपनी ही गलतियों की खबर छाप सको?
http://news.bbc.co.uk/2/hi/entertainment/7981078.stm
सोमवार, 6 अप्रैल 2009
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12 टिप्पणियां:
अभी हम उस स्तर से बहुत पीछे हैं।
हम भी सहमत हैं .
निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए अभी लंबा इंतजार करना होगा हमें।
निष्पक्ष पत्रकारिता फले फूले, इसके लिए जितनी अपेक्षाएं हमें पत्रकारों से करनी होगी उससे कहीं ज़्यादा खुद से भी करनी होगी. घटिया पत्रकारिता को प्रश्रय तो हमीं देते हैं. कभी अनुचित का प्रतिरोध हम नहीं करते. इसीलिए यह सब फलता-फूलता है.
दर्पण में यदि पत्रकार अपना चेहरा देखेंगे तो वहाँ मानवता को निगलता हुआ एक राक्षस दिखायी देगा। यह भी सत्य है कि सारे ही पत्रकार दूषित नहीं हैं लेकिन वे सब बेचारे हैं। कुछ मुठ्ठी भर लोगों का गिरोह है जो देश की अच्छाई को निगल जाना चाहता है। वे अपने आपको इस देश का नागरिक नहीं मानते अपितु खुदा मानने लगे हैं। अब एक क्रांन्ति की आवश्यकता है इनके विरोध में। तभी यह देश बच पाएगा।
अभी तो मीडिया बिकी दुकानों की तरह है. पश्चिम के मापदंड का और कोन अनुसरण कर रहा है? राजनेता,नीतिकार, अफसर, पुलिस? फिर मीडिया से काहे का गुस्सा!
अच्छी लेखनी हे..../ पड़कर बहुत खुशी हुई.../ आप कौनसी हिन्दी टाइपिंग टूल यूज़ करते हे..? मे रीसेंट्ली यूज़र फ्रेंड्ली इंडियन लॅंग्वेज टाइपिंग टूल केलिए सर्च कर रहा था तो मूज़े मिला.... " क्विलपॅड " / ये बहुत आसान हे और यूज़र फ्रेंड्ली भी हे / इसमे तो 9 भारतीया भाषा हे और रिच टेक्स्ट एडिटर भी हे / आप भी " क्विलपॅड " यूज़ करते हे क्या...?
www.quillpad.in
सही कहा आपने।मीडिया पश्चिम का अनुसरण तो करता है लेकिन सिर्फ़ गलत बातों का अच्छी बात का अनुसरण करना तो शायद हमने सीखा ही नही।सहमत हू आपसे शत-प्रतिशत,बावज़ूद इस्के कि मै भी एक पत्रकार हूं।
पत्रकारिता का स्तर कुछ दशक पहले इतना गिरा हुआ नहीं था। हाल ही में कुछ ज्यादा गिरावट आयी है। जहाँ दुनिया आगे जा रही है, वहीं हमारी पत्रकारिता पीछे फिसलती जा रही है। पड़ोसनों के झगड़ों और बंदर-भालू के नाच भी देख चुका हूँ खबरी चैनलों पर।
दुर्गाप्रसाद जी की टिप्पणी ध्यान देने लायक है। हमें चाहिये कि बेकार की खबरें पढ़ने-सुनने की बजाय उसका सार्वजनिक विरोध करें, फिर चाहे वह पड़ोस की बैठक में हो या अंतर्जालीय चिट्ठों पर। जब लोग सुनेंगे ही नहीं तो ऐसी खबरें अपने आप चलनी बंद हो जायेंगी।
श्रीमति अजित गुप्ता जी की टिप्पणी भी वाजिब है। मेरा एक मित्र पत्रकार है, जो असली खबरें दिखाना चाहता है। लेकिन संपादक है कि टी आर पी के चक्कर में चैनल का स्तर पाताल तक गिराने को आमादा है। नौकरी बचाने की फिराक में बेचारे मित्र को खबरों के नाम पर जाने क्या-क्या परोसना पड़ता है!
बेनामी जी, प्रशंसा के लिये धन्यवाद। आप यह प्रश्न लिये बहुत दिनों से फिर रहे हो, सैकड़ों सज्जनों से पूछ चुके हो। सोचा कि आज आपको उत्तर दे ही दूँ। दरअसल मैं "मैक" कंप्यूटर इस्तेमाल करता हूँ जिसमें सभी भारतीय भाषाओं को लिखना बहुत ही सरल है - किसी "टूल" की आवश्यकता नहीं। क्विलपैड को फिर कभी देखेंगे। फिलहाल राम राम!
मैं तो कहता हूं भारत में खबरिया चैनल हैं ही नहीं, सब विज्ञापनी चैनल हैं। पांच मिनट "खबर" दिखाते हैं और 15 मिनट फूहड़ विज्ञापन।
लेकिन लोगों को टीवी से अलग करना आसान नहीं है। टीवी की एक सम्मोहनी शक्ति है जो लोगों को लत सी लगा देती है।
इतने सारे चैनल आ जाने से दर्शक के हाथ में विकल्प तो आ गया है, पर हर चैनल एक-दूसरे के क्लोन जैसे हो गए हैं। फिर भी रिमोट हमारे हाथ में झांसी की रानी की तलवार के समान है। मैं रिमोट लेकर ही टीवी के सामने जमता हूं। जैसे ही कोई अप्रिय विज्ञापन या खबर नजर आए, तुरंत अपनी तलवार चला देता हूं। पर घंटे-दो-घंटे टीवी के सामने बैठकर भी संतोष नहीं होता कि कुछ उपयोगी चीज देखी-सुनी है।
शायद पेइड टीवी चैनल आने लगें, तो मामला सुधरे, पर लगता नहीं कि भारत के मुफ्तखोरी की आदत वाले लोग पेइड चैनल को सफल होने देंगे। हम तो सब कुछ सस्ते में प्राप्त करने में विश्वास करते हैं, चाहे वह सोफ्टवेयर हो या किताबें।
कहां विक्रम साराभाई जैसे महान वैज्ञानिकों को उपग्रह और टीवी से आशाएं थीं कि ये देश को अशिक्षा और अज्ञान से उद्धार करेंगे, और कहां आजकल के चैनल और उनके कार्यक्रम।
अब तो ऐसा लगने लगा है कि अपना पूराना दूरदर्शन इन चैनलों से कहीं बेहतर है, कम से कम उसमें साहित्य, पुस्तकें, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, कृषि, शिक्षण आदि प्रासंगिक विषयों की चर्चा तो होती है, जैसे मृणाल पांडे का साहित्यकारों का इंटरव्यू (कार्यक्रम का नाम याद नहीं आ रहा)। ऐसे कार्यक्रम क्या किसी कमर्शियल चैनल में कभी दिखाए जा सकते हैं?
विचारशील लोगों को अखबार और टीवी को नमस्कार करके पुस्तकों का आश्रय लेना चाहिए, जहां अब भी लेखक ईमानदारी से और निर्भीकता से अपनी विचार रख सकता है। पर वहां भी प्रकाशकों के खस्ता हाल के कारण हर किताब छप नहीं पाती, और छप भी जाती है, तो लाइब्रेरियों की अलमारियों की शोभा बढ़ाती है, वास्तविक पाठकों के हाथों में नहीं पहुंच पाती।
स्थिति हर तरह से निराशाजनक लगती है, पर हमें अपनी वैचारिक स्वतंत्रता के लिए लड़ना जरूर चाहिए।
सही राय रखी है आपने, किन्तु यह परिपक्वता आने में समय लगेगा यहाँ.
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