बुधवार, 25 मार्च 2009

अर्थव्यवस्था की एक छोटी सी कहानी



एक बार की बात है एक आदमी गाँव में एक छोटी सी दुकान चलाता था. अपना खर्च चलाने लायक कमाई हो जाती थी, और कुछ बच भी जाता था. उसने अपने बेटे को शहर पढने भेजा. बड़ी मुश्किल से वह अपना पेट काट-काटकर बेटे की पढाई के लिये पैसे देता रहा. आखिरकार बेटे की पढाई खत्म हुयी और बेटा गाँव वापस आ गया.

बाप ने कहा कि बेटे मेरे साथ दुकान चला. बेटे ने खुशी-खुशी हामी भरी और दोनों बैठ गये दुकान में. बाप ने पूछा कि बेटे तूने इतने सालों में क्या सीखा? बेटे ने बताया कि पिताजी आजकल अर्थव्यवस्था की बहुत बुरी हालत है. किसी भी धंधे में फायदा नहीं है.

बाप ने पूछा "तो क्या हमारा भी धंधा मंदा होने वाला है?"
बेटे ने कहा "बाबा जब सत्यम् जैसी बड़ी-बड़ी कंपनियाँ डूब गयीं तो हमारी छोटी सी दुकान की क्या बिसात?"

बाप ने सोचा कि बेटा इतने साल शहर में मगजमारी करके आया है, इतने साल पढने-लिखने के बाद झूठ थोडी ही बोल रहा होगा?

बाप ने पूछा "तो हमें मंदी की मार से बचने के लिये क्या करना चाहिये?"
बेटे ने कहा "बापू मेरी मानो तो यह दुकान बंद कर दो. हमारे पास पहले थोडी जमा-पूँजी है, उसी से तब तक गुजारा करेंगे जब अर्थव्यवस्था ठीक हो जायेगी. तब दुकान दोबारा खोल लेंगे"

बाप झुंझला उठा "बेटे दुकान बंद कर देंगे तो कैसे काम चलेगा? यह विचार मुझे पसंद नहीं आया"
बेटा बोला "ठीक है बापू, चलो कल दुकान के लिये कम सामान खरीदेंगे, तो घाटा भी कम होगा."

बाप बोला "यह ठीक रहेगा - दुकान भी चलती रहेगी और घाटा भी कम रहेगा"

तो आर्थिक मंदी की मार से बचने के लिये वे लोग दुकान में कम सामान बेचने लगे. लोगों ने उनकी दुकान में कम सामान देखकर लोगों ने उनकी दुकान से सामान खरीदना बंद कर दिया. आखिर में उनकी दुकान की इतनी बुरी हालत हो गयी कि दुकान बंद करनी पडी.

बाप बेटे से बोला "बेटा, तू बहुत पढा-लिखा आदमी बन गया है. तूने तो मुझे पहले ही अच्छी सलाह दी थी दुकान बंद करने की. मैं ठहरा निपट-गँवार, मान न सका. आज तूने मेरी आँखें खोल दी हैं". यह कहकर उसने अपने पढे-लिखे बेटे की पीठ थपथपायी, और दोनों उबले आलू खाकर सो गये.

चलो कहानी तो खत्म हुयी. अब असली संदेश सुनाता हूँ. भारतीय अर्थव्यवस्था पिछले कुछ सालों की अपेक्षा धीमी चल रही है, लेकिन फिर भी मंदी की असली मार हमें न पड़ी है, न पड़ेगी. यदि कोई भारतीय कंपनी अपने कर्मचारियों की छटनी कर रही है तो इसका मतलब है कि वह कंपनी उपरोक्त कहानी के बूढे बाप जैसा काम कर रही है.

पश्चिमी सभ्यता में एक ही चीज आपको सभ्य बनाती है, वो है पैसा. आज जब उनका पैसा उनकी अपनी गलतियों के कारण डूब रहा है तो वे लोग शोर मचा रहे हैं. हमें चाहिये कि उनके उस शोर को नजरअंदाज करके अपने काम में लगे रहें.

(चित्र साभार: पाइडमौंट फौसिल)

4 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

कहानी का संदेश हमेशा ठीक हो यह ज़रूरी नहीं

संगीता पुरी ने कहा…

ये कहानी तो कल ही कहीं पढ चुकी हूं ... आपने लिखा है या ...

Anil Kumar ने कहा…

संगीता जी ये कहानी मेरे पिताजी ने मुझे कई साल पहले सुनायी थी. आजकल अर्थव्यवस्था का बहाना बनाकर मेरे कई दोस्तों की छंटनी की जा चुकी है, तो कल बैठे-बैठे अचानक से यह कहानी याद आ गयी. यदि इसके मूल लेखक का पता बता दें तो बडी कृपा होगी.

not needed ने कहा…

फोटो बड़ा अच्छा छापा है.