एक बार मेरी माताश्री मंदिर से प्रसाद लेकर आयीं। प्रसाद के वे लड्डू देकर उन्होंने मुझसे कहा "बेटा मोहल्ले में प्रसाद बाँट दे।" मैं आस-पड़ोस के घरों में प्रसाद बाँटने चल निकला।
पड़ोस ही में एक युवा छात्र अकेला रहता था, उसके कमरे पर भी मैं गया। हाथ में एक लड्डू उसकी ओर करते हुये मैं बोला "ये लड्डू ले लो।"
उसने कहा "धन्यवाद, लेकिन लड्डू मुझे पसंद नहीं हैं।"
मैं बोला "भैया ये प्रसाद के लड्डू हैं"
उसने चेहरे के भाव तुरंत बदले, और उसने कहा "ओह, प्रसाद है? तब खा लूंगा।"
उसकी हथेलियाँ अंजलि बनाकर मुझसे लड्डू गृहण कर चुकीं थीं। जो लड्डू उसे १ मिनट पहले तक पसंद नहीं थे, अब वह उन्हीं लड्डुओं को हाथ जोड़कर पूरी श्रद्धा से खा रहा था।
यदि हम सब कुछ भगवान का प्रसाद मानकर गृहण करें, तो दुख को भी सुख में बदलते देर नहीं लगेगी। इसी का नाम है प्रसादबुद्धि!
शनिवार, 4 अप्रैल 2009
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14 टिप्पणियां:
दृष्टि बदल जाय तो सृष्टि ही बदल जाती है, यह तो लड्डू मात्र था ।
bahut saralta se gahan baat krh di,sach bhi hai.sab kuch ishwar ja prasad hi hai duniya mein.bahut achhi post.
गहन भाव.
बोहत ही अच्छी पोस्ट..........
हमें तो जो जो भी मिलता है सब प्रसाद ही है।
बहुत अच्छा लिखा आपने एक ही वस्तु पे अलग - अलग दृष्टी काफी अलग भावना ब्यक्त करती है .........
कहानी के माध्यम से अच्छी सीख।
बहुत अच्छा उपदेश!
वाह अनिल जी ,
अच्छा लिखा आपने प्रसाद के नाम पर तो कुछ भी खाया जा सकता है .....
पसंद हो या न हो ....
हेमंत कुमार
शादी के लडू कब खाने को मिल रहें हैं आप कि और से ?
शादी के लड्डू भी मिल जायेंगे! बस समय की देर है! तारीफ के लिये सबका शुक्रिया! आशा है आपके जीवन में खुशियों का प्रसाद आये!
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